काले कोलतार की चमक लिए पक्की सड़क । वहीं बगल में थोड़ी निचाई पर पक्की सड़क के साथ-साथ ही चलती एक पगडंडी ।
सड़क पर लोगों की खूब आमोदरफ्त रहती, गाड़ियों का आवागमन रहता । अपना मान बढ़ता देख सड़क इतराती रहती । एक दिन उसने पगडंडी से कहा – "मेरे साथ चल कर क्या तू मेरी बराबरी कर लेगी । कहाँ मैं चमकती हुयी चिकनी सड़क और कहाँ तू कंकड़-पत्थर से अटी हुयी बदसूरत सी पगडंडी । महंगी से महंगी और बड़ी से बड़ी गाडियाँ मेरे ऊपर से आराम से गुजर जाती हैं । और तू...हुंह... ।" क्यों अपना समय बेकार करती है । यहीं रुक जा । पर पगडंडी चुपचाप मुस्कराती सड़क के साथ ही चलती रही ।
फिर एक दिन भारी बरसात के बाद आई अचानक बाढ़ के बहाव ने सड़क को उधेड़ कर रख दिया । सड़क जगह जगह से धँस गयी । लेकिन आमोदरफ्त की रफ्तार भला कब रुकी है । जहां जहां सड़क धँसी थी, उस जगह से गाडियाँ सड़क से थोड़ा नीचे उतर पगडंडी पर आतीं और आगे बढ़ जातीं । ये देख सड़क अपने आप को अपमानित महसूस करने लगी । लेकिन पगडंडी पहले की ही तरह चुपचाप मुस्कराती रही ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
नीलम जी आपकी लघुकथा "पगडंडी" बहुत ही अच्छी है | "सड़क और पगडंडी" पात्र मानों जीवंत हो उठे हो |
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