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मिलेगा क्या तुम्हें परदेश जा कर
रही माँ पूछती आँसू बहा कर
तड़पता छोड़कर तन्हा शजर को
परिंदा उड़ गया पर फड़फड़ा कर
बहल जाये विकल मासूम बचपन
नजर भर देख ले माँ मुस्कुरा कर
है पल पल टूटती साँसों की माला
बिता लो चार पल ये हँस हँसा कर
न जाओ छोड़कर 'ब्रज' कुंज गलियाँ
दरख्तों ने कहा ये कसमसा कर
.
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'
Comment
आदरणीय ब्रजेश जी सुन्दर गजल कही आपने मतले के सानी पर हम भी अटके थे वाक्य विन्यास की दृष्टि से मिसरा सही नहीं हो रहा था । आदरणीय समर साहब की इस्लाह कारगर है । मकते में आपका नाम बहुत खुबसूरती के साथ आया है बहुत बहुत बधाई ।
मिलेगा क्या तुम्हें परदेश जा कर
रही माँ पूछती आँसू बहा कर
तड़फता छोड़कर तन्हा शजर को
परिंदा उड़ गया पर फड़फड़ा कर
वाह आदरणीय बृजेश जी बहुत ही गहन भाव का दिलकश प्रस्तुतीकरण। ... हार्दिक बधाई।
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