सुनसान रात में लगभग तीन घंटे दौड़ने के बाद वह सैनिक थक कर चूर हो गया था और वहीँ ज़मीन पर बैठ गया। कुछ देर बाद साँस संयत होने पर उसने अपने कपड़ों में छिपाया हुआ मोबाईल फोन निकाला। उस पर नेटवर्क की दो रेखाएं देखते ही उसकी आँखों में चमक आ गयी और बिना समय गंवाये उसने अपनी माँ को फोन लगाया। मुश्किल से एक ही घंटी बजी होगी कि माँ ने फोन उठा लिया।
सैनिक ने हाँफते स्वर में कहा, “माँ मैं घर आ रहा हूँ।”
“अच्छा! तुझे छुट्टी मिल गयी? कब तक पहुंचेगा?” माँ ने ख़ुश होकर प्रश्न दागे।
“छुट्टी नहीं मिली, मैं बंकर छोड़ कर निकल आया हूँ।”
“क्यों?” माँ ने आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा।
“दुश्मनों ने कुछ सैनिकों के सिर काट दिए, उनके तड़पते शरीर को देखकर मेरी आत्मा तक कांप उठी... इसलिए मैं...” कहते हुए वह सिहर उठा।
“सैनिकों के सिर काट दिये...!” उसकी माँ बिलखने लगी।
“हाँ, और मैं वहां रहता तो मैं नहीं आता... मेरी सिरकटी लाश आती।” वह कातर स्वर में बोला
उसकी माँ चुप रही, वह आगे बोला, “ऐसी हालत है कि कभी हाथ-पैरों को धोना भूल जाएँ तो वे गलने लगते है, बंकर में खड़े होने की जगह नहीं मिलती, पचास फीट नीचे जाकर बर्फ को गर्म कर पानी पीते हैं, हर समय दुश्मन के हथियारों की रेंज में रहते हैं... और तिस पर ऐसी भयानक मौत के दृश्य!” उसने अपनी थकी हुई गर्दन घुमाते हुए कहा।
कुछ क्षणों तक चुप्पी छा गयी, फिर उसकी माँ ने गंभीर स्वर में कहा,
“सिर कटने की मौत, किसी भगौड़े की झुके हुए सिर वाली जिंदगी से तो ज़्यादा भयानक नहीं है... तू मेरे घर में ऐसे मत आना बेटा।”
और गर्दन घुमाते हुए उसे गर्दन के पिसने की आवाज़ सुनाई देने लगी।
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय मोहम्मद आरिफ जी साहब, आदरणीय सुरेश कुमार जी कल्याण, आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी जी साहब्म आदरणीय सतविन्द्र कुमार भाई जी, आदरणीय लक्ष्मण धामी जी, आदरणीय महेंद्र कुमार जी, आप सभी का सादर आभारी हूँ कि आप सभी को लघुकथा का यह प्रयास ठीक लगा और आप सभी ने मेरा मनोबल बढाती टिप्पणी भी की| पुनः आभार|
देशप्रेम को केंद्र में रखकर बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने दरणीय चंद्रेश जी. मेरी तरफ से हार्दिक बधाई प्रेषित है. सादर.
कोटि कोटि नमन
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