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बटा ग़िलाफ़ तलक माँ की उस रिजाई का (ग़ज़ल 'राज')

1212 1122 1212 22 (ग़ज़ल कतआ से शुरू है )

किसी की आँख से अश्कों की आशनाई का

किसी जुबान से लफ़्ज़ों की बेवफाई का

सुखनवरों का हुनर है जो ये समझते हैं

भला क्या रिश्ता है कागज से रोशनाई का

जमीन बिछ गई आकाश बन गया कम्बल

बटा ग़िलाफ़ तलक  माँ की उस रिजाई का

जहर भी पी गई मीरा  जुनून-ए-उल्फत में

न होश था न उसे इल्म जग हँसाई का

लगाम लग गई उसके फिजूल खर्चों पर

गया जो पैसा निकलकर निजी कमाई का

ये जानते हैं सभी बात है ये जग जाहिर

सही से होता न सम्मान घर जमाई का

दिलों में पाप छुपा हो जुबान पर शीरी

असर खुदा पे नहीं  होता उस दुहाई का

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by नाथ सोनांचली on May 22, 2017 at 1:46pm
आद0 बहन राजेश कुमारी जी सादर प्रणाम। ग़ज़ल बहुत उम्दा लगी, अनेकानेक बधाइयाँ। मै तो आप लोगो से सीख रहा हूँ, माफी मांगते हुए एक बात कहूँगा की मतला में पूर्णता का मुझे अभाव लगा।सादर। शेष बेहतरीन।
Comment by Gurpreet Singh jammu on May 21, 2017 at 8:47pm
वाह वाह बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है आपने आदरणीया राजेश जी...
"भला क्या रिश्ता है कागज से रोशनाई का"
इस मिसरे के बारे में एक बात जानना चाहूंगा..
क्या यहाँ पर "क्या" शब्द को (1) के वज्न पर बाँधा गया है..और क्या ऐसा किया जा सकता है ?
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 21, 2017 at 7:38pm

आ. राजेश दीदी,
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है ,,,
मतला बात पूरी करता नहीं दिख रहा है ..
रेशा रेशा में बहर देख    लें... रे नहीं गिराया जा सकेगा ..
ज़हर ..आप भी 12 लेने लगीं??
ग़ज़ल के लिए बधाई 
सादर 

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