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***दहलीज के उस पार***(लघुकथा)राहिला

शराबी पति से रुई की तरह धुनी जा रही कुसमा ,गाँव में आयी पुलिस की गाड़ी देख कर दौड़ पड़ी।
"बचा लो साहब !बहुत मारा ये जल्लाद हमको,इसकी ऐसन पूजा करो कि हाँथ उठाना भूल जाए ।"एक तो अचानक आई पुलिस और ऊपर से कुसमा की शिकायत ने गोविंद पर चढ़ी दारू के सुरूर को तनिक हल्का कर दिया। वह जुबान जो अभी तक तूफ़ान की गति से गालियां उगल रही थी,तालू से जा चिपकी।वह थोड़ा सहम सा गया।
"क्यों रे!ज्यादा चर्बी चढ़ गयी लगता?
एक बार की मेहमानी में सारी पिघला देंगे। सुन रहा है ना?और तू!,पुलिस वाला कुसमा की ओर देख कर बोला ।
हम जरा एक को धर के आते है ।फिर चल थाने इसकी रिपोर्ट लिखवा फिर देख इसकी अक़ल कैसे ठिकाने लगाते हैं हम।"पुलिस वाले ने सकपकाये से खड़े गोविंद की ओर देखकर, मिसमिसाते हुए कहा।
"अरी कलमुयी !काहे खसम खाने बैठी है ।तेरी रपट पर जे पुलिस वाले तेरे आदमी को बैठन लाक भी ना छोड़ेंगे । घर की बात घर में निपटा ले सो ज्यादा भली। नई तो सेकने तो तुमई को है बाद में ।समझी के नाई!कछु लोक लाज की भी फिकर कर लेती । "सास, चचिया सास सुर में सुर मिलाते हुए ,कुसमा के पास आकर आंखे तरेर के फुसफुसाईं।
अब सीधी सरल कुसमा को कुछ न सूझ रहा था । थोड़ी देर बाद पुलिस की गाड़ी फिर उसके द्वारे रुकी।
"बोल बाई! चल रही है थाने?"
"रहन दो साहब ! अब किसमत ही फूटी तो कोई का कर सकत है।"वह हाथ भर का पल्लू खींच कर बोली।
"देख बाई! किस्मत को दोष ना दे ।तू जब तक रिपोर्ट नहीं लिखवाएगी ,हम कुछ नहीं कर सकते ।और इसके हौसले ऐसे ही बुलंद रहे तो कल फिर यही सब होगा तेरे साथ। "
"नई साहब!अब अगली बेर कुछ होगा तो देखूँगी।"
इतना सुन कर गोविन्द समझ गया कि कुसमा लोक लाज के कारण पीछे हट गयी है ।बस फिर क्या था!खून में जो दारू बाक़ी थी, वह फिर जोश में आ गयी।
"अरे बाद में क्या देखेगी ?अभी देख ले ।मैं क्या डरता हूँ किसी से ?तू क्या भेजेगी थाने ,ले मैं खुद ही बैठ जाता हूँ गाड़ी में।"और झोंक में आकर वह लपक कर गाड़ी में जा बैठा। "तड़ाक...."
गाल पर एक थप्पड़ पड़ते ही वह धूल में ज्यों ही औंधे मुँह गिरा ,तो खून में जो बची थी वह भाप बन कर उड़ गयी।
"साले! बाप की गाड़ी समझी है जो बैठ गया ?
सुधर जा...!और खैर मना औरत ने दहलीज नहीं नाकी ,वरना बस नाकने भर की देर है और तेरे जैसों की अक़ल घुटनों से खोपड़ी में आते देर नहीं लगती, समझा!"

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on June 2, 2017 at 8:27pm

तेरे जैसों की अक़ल घुटनों से खोपड़ी में आते देर नहीं लगती, समझा!".... वाह बहुत खूब आदरणीय  ... इस सुंदर और सार्थक संदेशात्मक लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई। 

Comment by Mahendra Kumar on June 2, 2017 at 7:55pm

आदरणीया राहिला जी, घरेलु हिंसा पर बढ़िया लघुकथा लिखी है आपने. संवाद स्वाभाविक और आकर्षक है. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए.

1. //खून में जो बची थी वह भाप बन कर उड़ गयी// इसमें "भी" की आवश्यकता है :- "खून में जो बची थी वह भी भाप बन कर उड़ गयी"

2. अंतिम संवाद को एक बार देख लीजिएगा मुझे कुछ अटकाव महसूस हो रहा है.

सादर.

Comment by TEJ VEER SINGH on June 2, 2017 at 12:56pm

हार्दिक बधाई आदरणीय राहिला जी।बहुत मार्मिक प्रस्तुति।घरेलू हिंसा पर विचारोत्तेजक रचना।अकसर यही होता है कि स्त्री ही लोक लाज का आवरण ओढ़ कर पीछे हट जाती है

Comment by Mohammed Arif on June 2, 2017 at 11:20am
आदरणीया राहिला जी आदाब, अच्छा कथानक,कसावट लिए और संवाद भी पात्रानुकूल । परिस्थितियों का चित्रण भी बेहतर । कभी-कभी हम जिसे सबक़ सिखाना चाहते तो बाज़ी पलट जाती है । फिर वह सबक़ अधूरा ही रह जाता है । बुराइयाँ फिर सर चढ़कर बोलती है । आप शायद मेरी व्यंजना को समझ गईं होंगी । बधाई स्वीकार करें ।

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