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प्यार चाहे कोई रिश्ता
कोई चाहे दिखावा

कहीं होता व्यापार रिश्तों का
कहीं ढ़ोल है पीटे जाते

कभी निकल जाता है जीवन
ताना बाना बुनने में

एक शब्द है पर
अर्थ है कितने


रिश्तों की तरह
अद्भुत , अटल सत्य की तरह

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 18, 2017 at 10:11pm

धन्यवाद् आदरणीय नरेन्द्रसिंह जी |

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 18, 2017 at 10:10pm

आदाब आदरणीय समर भाई जी | आप ने हमेशा से मेरा मार्गदर्शन किया है ,, तहे दिल से धन्यवाद आपका | भाई जी एडिट कर दी थी यह कविता | पुनः धन्यवाद् | सादर 

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 18, 2017 at 10:07pm

धन्यवाद् आदरणीय मोहम्मद आरिफ साहब | 

Comment by narendrasinh chauhan on July 3, 2017 at 5:05pm

सुन्दर रचना 

Comment by Samar kabeer on July 3, 2017 at 12:45pm
बहना कल्पना भट्ट जी आदाब,अच्छी कविता लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'कहीं ढोल है पिटे जाते'
इस पंक्ति को इस तरह कीजिये:-
"कहीं ढोल हैं पीटे जाते"
आठवीं पंक्ति में 'मायने'शब्द ग़लत है,सही शब्द है "मा'ना"या "मानी"भी कहा जा सकता है,लेकिन आप 'मायने'की जगह "अर्थ"कर लीजिए तो उचित होगा ।
Comment by Mohammed Arif on July 3, 2017 at 10:53am
आदरणीया कल्पना भट्ट जी आदाब, एक बेहतरीन अनुभूति बनकर कविता उभरना चाहती थी लेकिन परिपक्वता की भूमि पर उभर नहीं पाई । थोड़ा फलने-फूलने का अवसर दिया होता । बधाई स्वीकार करें ।

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