तुम्हारे हृदय में ...
ये
समय ठहरा था
या कोई स्मृति
वाचाल बन
मेरी शेष श्वासों के साथ
चन्दन वन की गंघ सी
मुझे
कुछ पल और
जीवित रखने का
उपक्रम कर रही थी
ये
समय का कौन सा पहर था
मैं पूर्णतयः अनभिज्ञ था
अपनी क्लांत दृष्टि से
धुंधली होती छवियों में
स्वयं को समाहित कर
अपने अंत को
कुछ पल और
जीवित रखने का
असफ़ल
प्रयास कर रहा था
शायद किसी के
इंतज़ार में
तुम
व्यर्थ ही
अनबिंधे मोती सी
मेरी श्वासमाल में
अंतिम छोर को ढके
मेरी चेतना के व्योम को
अपनी थपकियों से
अचेतन के भय से
मुक्त करने का
प्रयास कर रही हो
देखो
अब प्रकाश और
अन्धकार का भेद
धीरे धीरे
चेतना के साथ
शून्यता में लुप्त हो रहा है
महसूस कर रहा हूँ
तुम्हारी आंखों में
वेदना के सागर से गिरती
गर्म लावे की बूंदों को
जो अपने कपोलों पर
खारेपन को छोड़ती हुई
अतृप्त अनुभूति से
मेरी देह को सपन्दित
कर रही है
उदय और अस्त को
कब कोई रोक पाया है
मिटते ही
सायों के वज़ूद
अफ़साने
अमर हो जाते हैं
लफ्ज़
रूह बन जाते है
कहाँ मिटते हैं
मिट के भी
वो तो
वक़्त के अधरों पे
सदियों के लिए
नग्मों के
ख़ज़ाने बन जाते हैं
प्रिय
अब विलाप को
विश्राम दो
क्योंकि
अब
मेरा अंत
अंत नहीं
बल्कि
तुम्हारे हृदय में
कभी न अस्त होने वाला
आरम्भ बन जाएगा
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय निकोर साहिब प्रस्तुति के भावों को अपने स्नेह से पोषित करने का दिल से आभार।
बहुत ही सुन्दर भाव, ऐसे कि बार-बार पढ़ने को मन किया। आपको हार्दिक बधाई, भाई सुशील जी।
आदरणीय narendrasinh chauhan जी सृजन को अपने स्नेह से शोभित करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब , आदाब ... सृजन को अपने स्नेह से अलंकृत करने का हार्दिक आभार। आपके द्वारा इंगित संशोधन कर दिए हैं। सृजन को अपना अमूल्य समय देने का हार्दिक आभार।
आदरणीय मो.आरिफ साहिब सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का हार्दिक आभार।
लाजवाब। खूब सुंदर रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करे
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