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रिश्ते में नुकसान जोड़ते पाई पाई------इस्लाह के लिए ग़ज़ल

22 22 22 22 22 22
रिश्ते में नुकसान जोड़ते पाई पाई।
आँगन में दीवार खींचते भाई भाई।।

वाह रुपये खूब तुम्हारी भी है माया।
पुत्र बसा परदेश गाँव में बाबू- माई।।

कलयुग कैसी है ये तेरी काली छाया
साथ नहीं देती है खुद की ही परछाई।।

नातेदारी मृग मरीचिका में उलझी है
जानें कितनी लाश गिरेगी रे'त में भाई।।

पंकज बैठा लिये तराजू आओ लोगों
नाप-जोख कर भाव लगाकर करो मिताई।।

मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 6, 2017 at 12:04am
आदरणीय हरि प्रकाश दुबे जी सादर आभार और अभिवादन
Comment by Hari Prakash Dubey on July 16, 2017 at 6:37pm

 इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई आ.Pankaj Kumar Mishra जी ! सादर

 

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 16, 2017 at 4:30pm
आदरणीय कल्पना मैम सादर आभार
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 16, 2017 at 4:03pm

बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीय पंकज जी | हार्दिक बधाई |

Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 13, 2017 at 7:54am
आदरणीय खुर्शीद जी सादर आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 13, 2017 at 7:54am
आदरणीय गुरप्रीत जी सादर आभार। मिताई अपभ्रंश शब्द है, शुद्ध शब्द है मित्रता।
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 13, 2017 at 7:53am
आदरणीय महेंद्र सर बहुत बहुत आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 13, 2017 at 7:53am
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर बहुत बहुत आभार
Comment by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 13, 2017 at 7:52am
आदरणीय ब्रजेश जी सादर आभार
Comment by khursheed khairadi on July 13, 2017 at 7:33am
आदरणीय पंकज सर,बहुत ही भावुक और सुन्दर ग़ज़ल हुई है। बहुत बहुत बधाई स्वीकार करें सर। सादर।

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