गजल
2121 1221 1212 122
मेरे रहनुमा ही मुझसे मिले सूरतें बदल के
भला क्या समझता तब मैं छिपे पैंतरे वो छल के।1।
न सितारे बोले उससे मेरा हाल क्या है या रब
न ही चाँद आया मुझ तक कभी एकबार चल के।2।
खता क्या थी अपनी ऐसी अभीतक न समझा हूँ मैं
जो था राज मेरे दिल का खुला आँसुओं में ढल के।3।
कहूँ लाल कह के उसने न गले लगाया क्यों मैं
न लिपट सका था मैं ही कभी उससे यूँ मचल के।4।
बड़ा ख्वाब था खिलाऊँ उसे मोल की भी रोटी
न खरीद पाया नितनित चढ़ा भाव जो उछल के।5।
इतिहास का असर भी हुआ करता है सुना था
नहीं साथ मेरे फिर क्यों भला काम मेरे कल के।6।
कभी गम के दौर में भी हुई आखें नम नहीं पर
रही साथ खुशियाँ तो अब तेरे अश्क यारा छलके।7।
तेरे अश्क कर रहे हैं तेरे दिल का आशकारा
मेरे रतजगों पे तू फिर मढ़े दोष क्यों उबल के।8।
मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’
गजल
2121 1221 1212 122
मेरे रहनुमा ही मुझसे मिले सूरतें बदल के
भला क्या समझता तब मैं छिपे पैंतरे वो छल के।1।
न सितारे बोले उससे मेरा हाल क्या है या रब
न ही चाँद आया मुझ तक कभी एकबार चल के।2।
खता क्या थी अपनी ऐसी अभीतक न समझा हू मैं
जो था राज मेरे दिल का खुला आँसुओं में ढल के।3।
कहूँ लाल कह के उसने न गले लगाया क्यों मैं
न लिपट सका था मैं ही कभी उससे यँू मचल के।4।
बड़ा ख्वाब था खिलाऊँ उसे मोल की भी रोटी
न खरीद पाया नितनित चढ़ा भाव जो उछल के।5।
इतिहास का असर भी हुआ करता है सुना था
नहीं साथ मेरे फिर क्यों भला काम मेरे कल के।6।
कभी गम के दौर में भी हुई आखें नम नहीं पर
रही साथ खुशियाँ तो अब तेरे अश्क यारा छलके।7।
तेरे अश्क कर रहे हैं तेरे दिल का आशकारा
मेरे रतजगों पे तू फिर मढ़े दोष क्यों उबल के।8।
मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी मुसाफिर
Comment
खूब सुन्दर रचनाओं के लिए हार्दिक बधाई सादर
आदरणीय लक्षमण जी अच्छी ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सादर
आदरणीय लक्ष्मण जी आपकी गजल पढ़ी भाव तो समझ आ रहे है पर आपने जो अरकान लिखे है उसके अनुसार मिसरे नहीं समझ पा रहे हैं ।
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