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ग़ज़ल --इस्लाह के लिए

      (122-122-122-12)

रहे हम तो नादां ये क्या कर चले
कि दौर ए जफ़ा में वफ़ा कर चले।

वो तूफ़ान के जैसे आ कर चले
मेरा आशियाना फ़ना कर चले।

रक़ीबों की तारीफ़ की इस क़दर
कि चहरा मेरा ज़र्द सा कर चले'

कहीं जाग जाएँ न इस ख़ौफ़ से
हम आँखों में सपने सुला कर चले

ज़मीं हमको बुज़दिल का ताना न दे
तो फिर हम ये नज़रें उठा कर चले।

तड़पते रहे अधजले कुछ हरूफ़
वो जब मेरे खत को जला कर चले।

बताओ मुझे नींद आएगी क्या
कि वो मेरा बिस्तर बिछा कर.... चले।

 

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Comment by नाथ सोनांचली on August 18, 2017 at 4:56am
आद0 गुरप्रीत जी समर साहब की बातों से हम भी सहमत हैं। शेष सृजन पर बधाइयाँ आपको।
Comment by Mohammed Arif on August 16, 2017 at 8:35pm
आदरणीय गुरप्रीत जी आदाब,ग़ज़ल का बहुत ही बेहतरीन प्रयास रहा आपको , सबसे पहले इस प्रयास के लिए आपको बधाई । आपकी सदशयता और सहजता का मैं कायल हो गया क्योंकि आपने सबसे पहले ही लिखा कि"ग़ज़ल इस्लाह के लिए" यह दर्शाता है कि आप ग़ज़ल को कितनी शिद्दत से सीखना चाहते हैं ।ओबीओ के मंच के लिए भी बड़े फक्र की बात है कि इस मंच पर सीखने वालों की भी कमी नहीं है । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब के सुझावों का संज्ञान लें । सादर ।
Comment by Samar kabeer on August 16, 2017 at 6:37pm
जनाब गुरप्रीत सिंह जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
सात अशआर पर मुश्तमिल ग़ज़ल के तीन अशआर एक ही तरकीब से कहे गए है 'वो',हालांकि ये कोई दोष नहीं है,मगर ये अमल ठीक भी नहीं,इससे बचना चाहिये ।

'वो ज़िक्र अपनी रंगीनी का कर चले
ये चेहरा मेरा ज़र्द सा कर चले'
उनकी रंगीनी के ज़िक्र करने से आपका चहरा कैसे ज़र्द कर चले ?बात समझ नहीं आई ।
'हम आँखों में सपने सुला कर चले'
आँखों में सपने सुला कर आप कहाँ चले ? और क्यों ?

'ज़मीं बुज़दिली से जो वाक़िफ़ हुई
तो फिर हम ये नज़रें उठा कर चले'
इस शैर में आप क्या कहना चाहते हैं ?भाव स्पष्ट नहीं हो रहा है ।
छटे शैर में 'हुरूफ़' को "हरूफ़" कर लें ।

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