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एक नवगीत - सूरज सन्यास लिए फिरता

अँधियारे गद्दी पर बैठा,

सूरज सन्यास लिए फिरता

 

नैतिकता सच्चाई हमने,

टाँगी कोने में खूँटी पर.

लगा रहे हैं आग घरों में,

जाति धर्म के प्रेत घूमकर.

सत्ता की गलियों में जाकर,

खेल रही खो-खो अस्थिरता.

 

तृष्णाओं की नदी बह रही,

बाँध नहीं कोई बन पाया.

वैभव के सूरज के सँग सँग,

दूर हो रहा अपना साया.

 

रोज नए शिखरों को छू लें,

स्वप्न रहा आँखों में तिरता.

प्रेम और सद्भाव रूठकर,

चले गए हैं लम्बी छुट्टी.

साथ गुजारा जिसके बचपन,

उस मस्ती ने कर ली कुट्टी.

 

बिन पानी का बादल छत पर,

सुबह शाम बस रहता घिरता.

 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

 

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Comment by बसंत कुमार शर्मा on August 30, 2017 at 6:32pm

आदरणीय Mohammed Arif जी आपका दिल से शुक्रिया

Comment by Samar kabeer on August 28, 2017 at 10:11pm
जनाब सुरेन्द्र नाथ जी ये ग़ज़ल नहीं नवगीत है ।
Comment by Samar kabeer on August 28, 2017 at 10:09pm
जनाब बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,बहुत अच्छा लगा आपका नवगीत,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 28, 2017 at 6:15pm

बहुत सुंदर पंक्तियाँ आदरणीय | हार्दिक बधाई |

Comment by नाथ सोनांचली on August 28, 2017 at 1:51pm
आद0 बसन्त जी सादर अभिवादन, उम्दा ग़ज़ल पर बधाई। तिरता शब्द मुझे थोड़ा अजीब लगा
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 28, 2017 at 12:00pm
क्या कहने..बहुत सुन्दर सटीक रचना है हार्दिक बधाई..अँधियारा गद्दी पर बैठा..
Comment by Mohammed Arif on August 28, 2017 at 10:57am
आदरणीय बसंत कुमार जी आदाब, सुंदर भावों का स्फुटन । चिंता भी है , दर्द भी और रचना सामयिक भी । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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