दीप रिश्तों का' बुझाया जो', जला भी न सकूँ
प्रेम की आग की’ ये ज्योत बुझा भी न सकूँ |
हो गया जग को’ पता, तेरे’ मे’रे नेह खबर
राज़ को और ये’ पर्दे में’ छिपा भी न सकूँ |
गीत गाना तो’ मैं’ अब छोड़ दिया ऐ’ सनम
गुनगुनाकर भी’ ये’ आवाज़, सुना भी न सकूँ |
वक्त ने ही किया’ चोट और हुआ जख्मी मे’रे’ दिल
जख्म ऐसे किसी’ को भी मैं’ दिखा भी न सकूँ |
बेरहम है मे’रे’ तक़दीर, प्रिया को लिया’ छीन
ये वो’ किस्मत का’ लिखा है जो’ मिटा भी न सकूँ |
बाल सूरज हो’ गया अस्त है’ सूनी माँ’ की’ गोद
आँख सूखी, न गिली किन्तु रुला भी न सकूँ |
ख़ूनी चालाक था’ गायब किया’ सब औजारें
साक्ष्य कोई नहीं,’ पापी को' फँसा भी न सकूँ |
मिला’ है प्यार मुझे मांगे’ बिना यार मे’रे
वो’ है’ ‘काली’ मेरा पाथेय, लुटा भी न सकूँ |
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आदाब और शुक्रिया आदरणीय गिरिराज भंडारी श्रीवास्तव जी
आदाब और शुक्रिया आदरणीय महम्मद आरिफ साहिब
आदाब और शुक्रिया आदरणीय समर कबीर साहिब
शुक्रिया आदरणीय अफरोज सहर जी
आदरणीय काली पद भाई , गज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है , हार्दिक बधाइयाँ । वाक्य विन्यास की कमज़ोरी गैर हिन्दी भाषी होने कारण हमेशा की तरह इस गज़ल मे भी है , कुछ समय और दीजिये इस गज़ल को आदरनीय ।
शुक्रिया आ शिज्जू और आ निलेश भाई
आ. कालिपद मंडल सर आपकी ग़ज़ल और थोड़ी मेहनत और समय माँग रही है। मैं निलेश भाई से सहमत हूँ यदि ये रचना आयोजन में आती तो विस्तृत चर्चा हो जाती
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