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ग़ज़ल....धीरे धीरे रीत गया - बृजेश कुमार 'ब्रज'

22 22 22 22 22 22 22 2
यादों के गलियारे होकर जब मैं आज अतीत गया
लाख सँभाला आँखों ने पर धीरे धीरे रीत गया

नाम पुकारा कुछ ने मेरा कुछ के अश्क़ छलक आये
कुछ तस्वीरें मुस्काईं तो गूँज कहीं संगीत गया

ख्वाब सुहाने कुछ बचपन के टूट गये कुछ रूठ गये
कैसे जी को समझाऊँ मैं क्या गुजरी क्या बीत गया

ऐसा क्या माँगा था उनसे ऐसी क्या मज़बूरी थी
बीच भँवर क्यों हाथ छुड़ाकर बेदर्दी मनमीत गया

खेल रचा क्या भावों का हाथों की चन्द लकीरों ने
हार गया 'ब्रज' हर लम्हा वो बाज़ी हर इक जीत गया
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 25, 2017 at 12:22pm
बहुत बहुत आभार आदरणीय नंदकिशोर जी..सादर
Comment by नन्दकिशोर दुबे on September 24, 2017 at 10:49am
बहुत ही मनहर रचना जी ।ब्रजेश भाई बधाई।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 20, 2017 at 11:33pm
आदरणीय गिरिराज जी सादर प्रणाम..आपकी टिप्पड़ी से शंकाओं के बदल छट गए हैं..
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 20, 2017 at 11:29pm
आदरणीय महेंद्र जी हौसलाफजाई के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया..सच कहूँ तो मुझे मतला ही सबसे अच्छा लग रहा है।आपका इशारा और बेहतर को लेकर है या कोई लय को लेकर कोई कमी है?अगर कोई खूबसूरत सुझाव देंगे तो मुझे ख़ुशी होगी।सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on September 20, 2017 at 8:16pm

आ. बृजेश भाई , मुस्काई लफ्ज़ मेरे खयाल से सही है ... कविता और गीत के अलावा  '' रेख्ता'' मे भी शेर मे यह उपयोग हुआ है .  मेरे खयाल से मुक्सुराई और मुस्काई दोनो मान्य हैं । लेकिन  अंतिम फैसला तो शायर खुद ही करता है

Comment by Mahendra Kumar on September 20, 2017 at 6:56pm

आ. बृजेश जी अच्छी ग़ज़ल कही है आपने किन्तु मतले को एक बार और देखने की आवश्यकता है. मेरी तरफ़ से हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 18, 2017 at 7:42pm
आदरणीय नीलेश जी आपकी उपस्थिति स्वागतयोग्य है..आम बोल चाल में हम इस शब्द का इस्तेमाल करते हैं..इसके अलावा मैंने कई बार पढ़ा भी है।
सोहन लाल द्विवेदी जी की बाल कविता उठो लाल अब आँखें खोलो में
नन्ही नन्ही किरणें आई,
फूल खिले कलियाँ मुस्काई।

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की कविता धीरे धीरे हँस कर आईं में
क्या गले लगाना है बढ़कर,
क्या अलख जगाना अड़-अड़कर,
क्या लहराना है झड़-झड़कर,
जैसे तुम कहकर मुस्काईं।
मैं तो अभी अल्पज्ञ हूँ..आगे आप बड़ों की सलाह की प्रतीक्षा में..सादर
Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 18, 2017 at 11:52am

आ. बृजेश जी,
अच्छी भावपूर्ण   ग़ज़ल हुई  है ...
मुस्काई सही चयन  नहीं है ..मुस्कुराई होना चाहिये ..मुस्कान , मुस्कुराना , मुस्कुराहट को मुस्काना या   मुसकाहट    नहीं कहना    चाहिए .
बधाई 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 17, 2017 at 8:54pm
हार्दिक आभार आदरणीय नीरज कुमार जी..सादर
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 17, 2017 at 8:51pm
लिखना सफल हुआ आपकी टिप्पड़ी से आदरणीय गिरिराज जी..सादर प्रणाम

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