ग़ज़ल- १२२२ १२२२ १२२२ १२२२२
मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन मफाईलुन
मुनासिब है ज़रूरत सब ख़ुदा से ही रजा करना
कि है कुफ़्रे अक़ीदा हर किसी से भी दुआ करना
ग़मों के कोह के एवज़ मुहब्बत ही अदा करना
नहीं है आपके वश में किसी से यूँ वफ़ा करना
नई क्या बात है इसमें, शिकायत क्यों करे कोई
शग़ल है ख़ूबरूओं का गिला करना जफ़ा करना
अगर खुशियाँ नहीं ठहरीं तो ग़म भी जाएँगे इकदिन
ज़रा सी बात पे क्योंकर ख़ुदी को ग़मज़दा करना
उफुक़ ए कोह पे जाकर मुड़े है राह फ़िर नीचे
कि जितना डूबता जाए तू उतना हौसला करना
दिखाया है ख़ुदी ने कौन है खुदगर्ज़ अपनों में
नहीं फ़ितरत मगर मेरी किसी पे तब्सिरा करना
ये दुनिया है खड़ी अब तक तमन्ना के सुतूनों पर
बहुत ही सोचकर आंखों से ख़्वाबों को जुदा करना
अना को ख़ाक़ में रखकर ही है वहदानियत मुमकिन
बहुत मुश्किल है ये तौबा, ख़ुदी को ख़ुद रिहा करना
सुकूने ज़िंदगानी का तरीका कारगर है ये
कि क़ब्ले आमदे इल्लत अलामत की शिफ़ा करना
समझता हूँ तेरी नाज़िश मगर ऐ जाने जाँ समझो
अगर पूरा न कर पाओ तो फ़िर क्यों वायदा करना
मुक़म्मल कब हुई ग़र्क़ो फ़ना से आशिक़ी पहले
वफ़ा को है ज़रूरी इंतिहा की इब्तिदा करना
नहीं करने से दो इक बार फ़न तकमील होता है
अगर सीखा जो चाहे हो तो उसको बारहा करना
अगरचे काम दुनिया के हज़ारों हैं मगर सच है
कि कारे फ़र्द दो ही हैं कि कुछ भी सोचना, करना
फ़क़ीराना हिदायत है कि ग़ुस्सा ख़ुद पे लाज़िम है
कि दिलको कुछ शिकायत है तो ख़ुदसे ही गिला करना
अना में देखना है रूह को उरयाँ बरअक्से ख़ुद
तो मसनूई इज़ाफ़ा शख़्सियत में बिरहना करना
कि पछताओगे जल्दी में लिये हर फ़ैसले से तुम
तसल्ली से कभी भी दिल किसी से आशना करना
तलाशे मानी ए हक़ में लगे हैं राज़ अर्से से
कहीं मिल जाए तुमको तो उन्हें भी इत्तला करना
~राज़ नवादवी
मुनासिब- उचित; कुफ़्र- अस्वीकृति, कृतघ्नता; अक़ीदा- धर्म, मत, श्रद्धा, विश्वास; रजा- आशा, आस; कोह- पहाड़; एवज़- बदले में, स्थानापन्न; शग़ल- धंधा, काम, जी बहलाने का का; ख़ूबरू- रूपवान, प्रियतमा; उफुक़- क्षितिज; तब्सिरा- आलोचना, समीक्षा; सतूना- स्तम्भ; अना – मैं; वहदानियत- अद्वैतवाद; तौबा- त्याग; इल्लत- त्रुटि या कमी, रोग, बीमारी, झंझट; अलामत- चिह्न, निशानी; शिफ़ा- रोगमुक्ति; नाज़िश – नाज़, हाव-भाव; ग़र्क़- डूबना, डूबा हुआ; फ़ना– मर जाना, मिट जाना, लुप्त या ग़ायब हो जाना, समाहित हो जाना; इंतिहा- पराकाष्ठा; इब्तिदा- प्रारम्भ; तकमील- पूर्ती, पूरा, समाप्त; बारहा- बहुधा, बार बार; कार- कार्य, उद्यम; फ़र्द- एक व्यक्ति, आदमी; लाज़िम- उपयुक्त, ज़रूरी, आवश्यक; उरयाँ- नग्न; बरअक्से ख़ुद- स्वयं के प्रत्युत, आमने सामने; मसनूई- कृत्रिम; इज़ाफ़ा- वृद्धि, बढ़ोत्तरी; बिरहना- नग्न; हक़- सत्य, सच, ईश्वर; इत्तला- सूचना
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आदरणीय समर कबीर साहब, आप का ह्रदय से आभार.
आदरणीय मोहम्मद आरिफ़ साहब, आदाब अर्ज़ है. आपकी बात सर आँखों पर. आपकी दाद ओ तहसीन का दिल से शुक्रिया. मैंने सहल लफ़्ज़ों में भी लिखा है मगर अभी साया नहीं किया है. एक तरतीब में करूँगा, यह पहले की लिखी ग़ज़ल है और हालिया गज़लें अपनी नौइयत ए बयाँ में ज़्यादा सहल और जुदा हैं. यह सब ज़ुबान ओ कलामे फ़न को सीखने के सिलसिले का एक निसाबी सफ़र है जिससे मैं गुज़र रहा हूँ. मगर मेरा यह कहना है कि हमें किसी चीज़ का मज़ा लेने के लिए कुछ तो तय्यारियाँ करनी होती हैं, हम जब पहाड़ों के सैर पे जाते हैं तो मुश्किल रास्तों के सफ़र का भी लुत्फ़ उठाते हैं, हम रास्तों को सीधा और सपाट बना देने का इरादा नहीं करते. भाई, सरल शब्दों की हद क्या है? हम शायरी का जौक रखने वालों पर क्या ये बात आयद नहीं है कि हम अपनी ज़ुबान के मेयार को भी ऊँचा करें? आप सोचिए, अगर हम इसी तरह शायरी से अल्फाज़ को कतरने की पैरवी करते रहे तो अदब की रंगीनी का क्या होगा? शायरी ख्याल और अलफ़ाज़ दोनों की एक ख़ूबसूरत आमेज़िश है, जिसे अरूज एक कैनवास देता है. लफ्ज़ अक्स हैं ख्यालों के और शायर एक अक्कास. लुगत एक तरकश है, अलफ़ाज़ तीर, शायर तीरंदाज़, और मजमून उसका निशाना है. सुखनवरी शायर का फन है और अरूज इस फन को साधने का क़ायदा. लुगत से मतलब है जुबां जो या तो हाफिज़े में है या किसी खारिज़ी वसीले की शक्ल में. खैर, ये कुछ मेरे ज़ाती ख्यालात थे जो मैंने आपसे साझा किया क्योकि मुझे ऐसी तरगीब हुई. मगर फिर भी आपकी बातें और नेक मंशा मेरे ज़हन में हैं जिसपे अमल करने की मेरी पूरी कोशिश होगी. सादर
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