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ग़ज़ल नूर की- सीने से चिमटा कर रोये,

२२, २२, २२, २२ 
.
सीने से चिमटा कर रोये,
ख़ुद को गले लगा कर रोये.
.
आईना जिस को दिखलाया,  
उस को रोता पा कर रोये.
.
इक बस्ते की चोर जेब में,
ख़त तेरा दफ़ना कर रोये.
.
इक मुद्दत से ज़ह’न है ख़ाली,
हर मुश्किल सुलझा कर रोये.

तेरी दुनिया, अजब खिलौना,
खो कर रोये, पा कर रोये. 
.
सीखे कब आदाब-ए-इबादत,
बस,,,, दामन फैला कर रोये.
.
हम असीर हैं अपनी अना के,
लेकिन मौका पा कर रोये.
.
सूरज जैसा “नूर” है लेकिन,
जुगनू एक उड़ा कर रोये.   
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Samar kabeer on October 4, 2017 at 10:43pm
जी,जैसा आपको उचित लगे,इस पर आगे बहस नहीं करूंगा,हमने अपने अपने विचार इंगित किये ।
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 4, 2017 at 10:31pm

आ. समर सर.. 
सदियाँ चाहे बहुवचन है लेकिन रोना ही एक क्रिया है 
सादर 

Comment by Samar kabeer on October 4, 2017 at 10:20pm
'बस्ते'वाले शैर से आपकी कुछ यादें जुडी हैं,ठीक है,लेकिन 'बस्ते की इक चोर जेब में'कहने से भी बात तो वही रहेगी,रवानी भी बढ़ जायेगी,ख़ैर ये आपका ज़ाती मुआमला है, बहरहाल मैंने इस मिसरे के बारे में जो भी इंगित किया है वो अपनी जगह ।

'सदियाँ होंठ दबाकर रोये'
इस मिसरे में 'सदियाँ'को रुलाया जा रहा है तो रदीफ़ 'रोयें'ही होगी,इसकी तोजीह में आपने जो मिसरा लिखा है:-
'लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई'
इस मिसरे में 'पाई'इसलिये है कि यहाँ 'सज़ा'एक वचन में है, अगर सज़ा के बजाए 'सजाएं'होता तब 'पाईं'लिखना होता,और आपके मिसरे में 'सदियाँ'शब्द बहुवचन है इसलिए लाज़मी तौर पर "रोयें"ही होगा,'रोये'नहीं ।
मक़्ते पर आपकी बात से सहमत हूँ ।
Comment by दिनेश कुमार on October 4, 2017 at 9:41pm
आ निलेश सर। आपके बस्ते वाले एक और शेर ,,,,,,।
किनारों से फटा बस्ता हमारा ..... आह
Comment by दिनेश कुमार on October 4, 2017 at 9:40pm
आ निलेश सर। आपके बस्ते वाले एक और शेर ,,,,,,।
किनारों से फटा बस्ता हमारा ..... आह
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 4, 2017 at 9:35pm

आ. अफरोज़ जी ,
मैंने बस्ते वाले शेर में जो बात की उससे आप संतुष्ट नहीं हैं.... बस्ते की इक चोर जेब से मैं इसलिए भी संतुष्ट नहीं हूँ कि अमूमन बस्ते में (मैं जो वापरता था) एक ही चोर जेब होती थी इसलिए इक भर्ती का शब्द हो जाता ,,,
वैसे आपकी मुराद बस्ते से नहीं है लेकिन मेरे शेर का केंद्र बस्ता ही है... कर जेब नहीं...
आप ये भी कह सकते हैं कि बस्ता दफ़नाने की जगह नहीं है ..लेकिन ये शाइर का विशेषाधिकार भी है कि वो क्या कहे और कैसे कहे...
सुझाव देना और उनके प्रति आग्रही हो जाना दो अलग बातें हैं...
सदियों वाले शेर में रोयें क्यूँ हो जायेगा ये मेरे समझ में नहीं आया ...
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई ...में पाईं क्यूँ न हो जाय?
फिर कोई सदियों तक जिंदा नहीं रहता तो वो सदियों होंठ दबा कर कैसे रो सकता है .
सादर

Comment by Afroz 'sahr' on October 4, 2017 at 8:56pm
आदरणीय निलेश नूर जी आदाब आदरणीय समर साहिब के सुझावों पर आपकी प्रतिक्रिया देखकर में जा़ती तौर पर संतुष्ट नहीं हूँ। समर साहिब ने कहा था की मिसरा यूँ होना चाहिए,,बस्ते की इक चोर जेब में,,,में आदरणीय समर साहिब के सुझाव से सहमत इसलिए हूँ की ,बस्ते की इक चोर जेब में,,से मुराद बस्ते के अदद से नहीं बल्की ,,चोर जेब,,,के अदद से है जो की आम तौर पर एक ही होती है। जिससे की मिसरे में व्यवहारिक भाव उत्पन्न हो रहा है।अत:आपके अनुसार ,,इक बस्ते की चोर जेब में,,बस्ते के अदद नुमांया हो रहे हैं ना की ,,चोर जेब,,के जो की मफ़हूम के लिहाज़ से थोड़ा ज़ईफ़ दिखाई पड़ता है। आपने इस संदर्भ में जो कारण बताया है वो थोड़ा अजीब लग रहा है।
आदरणीय समर साहिब ने दूसरी जगह यूँ सुझाया की,,सदियों होंठ दबाकर रोये,,से भाव तो ख़ुद के रोने का आ रहा है परंतू अरूज़ सम्मत है।आपके अनूसार भाव सदियों को रुलाने का चाहते हैं तो मिसरे के अंत में रोये की जगह ,,रोयें,, आना चाहिए। जबकी ऐसा कहने पर रदीफ़ बदल जाएगी। अत: ,,सदियों होंठ दबा कर रोये,,,अरूज़ सम्मत प्रतीत होता है। सादर,,,,,
Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 4, 2017 at 7:47pm

शुक्रिया आ राज़ साहब 

Comment by राज़ नवादवी on October 4, 2017 at 7:16pm

जनाब निलेश साहब, छोटी बह्र में लिखी बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल हुई है. कई शेर काबिले दादे ख़ास हैं:

इक मुद्दत से ज़ह’न है ख़ाली,
हर मुश्किल सुलझा कर रोये.

तेरी दुनिया, अजब खिलौना,
खो कर रोये, पा कर रोये.  
.
सीखे कब आदाब-ए-इबादत, 
बस,,,, दामन फैला कर रोये.

वाह वाह, बहुत खूब,

सादर. 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on October 4, 2017 at 6:57pm

धन्यवाद आ. समर सर..
आपको शेर कहने के पीछे का कारण बताता हूँ..
इक बस्ते की चोर जेब में... सर वो एक ही बस्ता था ..उस वाकये के बाद कभी इस्तेमाल में नहीं लाया गया ..
सदियों करने से हम रोये का भाव है .. मैं सदियों को रुला रहा हूँ ...
सूरज   में यकीनन आग है लेकिन हम तक उसका नूर ही पहुँचता है ..और फिर नूर तखल्लुस में इस्तेमाल हुआ है... शाइर ख़ुद को सूरज जैसा बता रहा है .
ये मेरी सोच है ..लेकिन आपने सुझाव दिया है   तो मैं अवश्य चिंतन करूँगा 
सादर 

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