२२१२, १२२; २२१२, १२२ (अरकान का क्रम भिन्न भी हो सकता है)
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तन्हाइयों के गहरे जंगल में रात काटी
तृष्णाओं से भरे इक मरुथल में रात काटी.
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जब रौशनी बढ़ा कर चन्दा ने उस को छेड़ा
शरमा के चाँदनी ने बादल में रात काटी.
. `
चुगली न कर दे बैरन थी जान कश्मकश में
बाहों में थे पिया और पायल में रात काटी.
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साजन का नाम जपते अधरों का थरथराना,
बिरहन के मुख पे फैले काजल में रात काटी.
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हर कूक ने उठाई है हूक मेरे दिल में
अमुआ पे चीखती इक कोयल में रात काटी.
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माज़ी की ख़ाक में मैं हर शब् मिला के आँसू
हर सुब्ह सोचता हूँ दलदल में रात काटी.
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
शुक्रिया आ. सुरेन्द्र नाथ जी
शुक्रिया आ. सलीम रज़ा साहब
जनाब निलेश'नूर'साहिब आदाब,बढ़िया ग़ज़ल,बधाई स्वीकार करें ।
मेरी ग़ज़ल में भी आपकी नज़रे इनायत चाहता हूँ ,
धन्यवाद आ. तस्दीक़ साहब...मैंने पहले ही लिखा है कि मुझे अरकान आदि की समझ नहीं है ..लय जैसा निर्देशित करती है वैसा रचता हूँ...
अरकान यूँ लिखे जायं या अलग ढंग से..इससे क्या रचना की लय पर असर होगा?
OBO में अरकान लिखने की बंदिश है इसलिए जैसे तैसे मात्रक्रम लिख देता हूँ... फिर भी आपकी जानकारी उपयोगी है..
सादर
धन्यवाद आ. बृजेश जी ....
पंक्ति वैसे तो अपना मतलब ख़ुद स्पष्ट कर रही है फिर भी ....अगर कभी रात में कोयल के कूकने से नींद खुल जाए और फिर न लगे तो शायद practically समझ पायेंगे ..
सादर
शुक्रिया आ. राज़ साहब
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