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आदरणीय दिनेश जी, आपकी कुछ टिप्पणियाँ पढ़ गया. आप एक विचारवान रचनाधर्मी हैं. उस हिसाब से आपकी टिप्पणियों की कुछ पंक्तियाँ चकित करने वाली हैं. ऐसी निर्लिप्तता उचित है क्या ? वैसे भी यह निर्लिपता नहीं एक तरह की आत्ममुग्धता जैसी कुछ है. ऐसी किसी भावदशा से हम सभी साग्रह बचने का प्रयास करें..
शुभकामनाओं के साथ ..
शुभ-शुभ
ग़ज़ल पसन्द करने का बहुत बहुत शुक्रिया आ. सौरभ सर।
आपके दोनों ऐतराज़ सही हैं। कौन के बाद प्रश्नवाचक चिन्ह ज़ियादा बेहतर होता। और दूसरा बेर भी liar नहीं होते। एक कॉन्फेशन कि मैंने कभी आज तक जूठे शब्द का प्रयोग नहीं किया। लिखते वक्त। ग़ज़ल में नहीं, वैसे भी। शायद इसीलिए ग़लती अपने आप हो गई। शुक्रिया सर, ध्यान दिलाने के लिए। सादर।
बहुत बहुत शुक्रिया आ. आरिफ़ साहब। ज़र्रानवाज़ी है आपकी जो आप मुझे ग़ज़लगो कहते हैं। तुकबंदी ही करता हूँ बस। शुक्रिया सर।
सच कहूं तो मैं मेंटली डिसऑर्डर का शिकार हूँ। अन्य विधाओं की रचना कभी कभी पढ़ता ज़रूर हूँ, लेकिन टिप्पणी करने का मूड नहीं होता।
ऐसा भी बहुत बार हुआ है कि मैंने अपनी ही रचनाओं पर आप सब आ. मित्रों की हौसला अफ़ज़ाई करती हुई प्रतिक्रियाओं का भी जवाब न देने की हिमाकत की है। सादर। आप सब की मुहब्बत को तहे दिल से सलाम। सादर
आदरणीय दिनेश कुमार जी, आपकी ग़ज़ल को पढ़ कर बहुत अच्छा लगा, एक रसभरी गेयता का अनुभव हुआ. बधाई हो. सादर.
भाई दिनेश कुमार जी, आपकी ग़ज़ल का ढंग आध्यात्मिक है. इन शरों की कथ्यात्मक गहराई आश्वस्तिकारी है. जैसे ,
पिछले लेखे-जोखे हैं
अपने कौन पराए कौन
कस्तूरी मिल जाएगी
ख़ुद में गहरे जाए कौन ,......................... वाह !
लेकिन, साथ ही, प्रश्न्वाचल पंक्तियों के लिए ? का चिह्न अन्योन्याश्रय हुआ करता है. इसे क्यों छोड़ दिया आपने ?
दूसरे, झूठे और जूठे में अंतर तो है न ? फिर बैर के साथ झूठे क्यों ? क्या बैर भी liar होते हैं ? .. :-))
शुभातिशुभ
वाह वा... सभी अशआर बेहद उम्दा और मानिखेज़ हैं..
बधाई
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