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ग़ज़ल - सोचो कुछ उनके बारे में, जिनका दिया जला नहीं

मुफ्तइलुन मुफाइलुन  //  मुफ्तइलुन मुफाइलुन

2112       1212      //   2112      1212

क्या करें और क्यों करें, करके भी फायदा नहीं

दिल में जो दर्द है तो है, लब पे कोई गिला नहीं 

 

उसके कहे से हो गये, लाखों के घर तबाह पर 

उसने कहा कि उसने तो, कुछ भी कभी कहा नहीं

 

सच तो हमेशा राज था, सच था हमेशा सामने

सच तो सभी के पास था, ढूंढे से पर मिला नहीं 

 

दोनों के दोनों चुप थे पर, गहरे में कोई शोर था

दोनों ने ही सुना मगर, दोनों ने कुछ कहा नहीं

           

जाने खिलेंगे ख्वाब कब, जाने कब आएगी बहार,  

वक्त के आसमान पर, अब भी कोई घटा नहीं

 

जब भी जलाओ तुम दिए, अपनी मुड़ेर पर कभी  

सोचो कुछ उनके बारे में, जिनका दिया जला नहीं

"मौलिक-अप्रकाशित" 

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Comment by Ajay Tiwari on October 23, 2017 at 1:36pm

आदरणीय सुरेन्द्र जी,

उदार सराहना के लिए हार्दिक धन्यवाद.

सादर 

Comment by नाथ सोनांचली on October 23, 2017 at 1:24pm
आद0 अजय तिवारी जी सादर अभिवादन।
जब भी जलाओ तुम दिए, अपनी मुड़ेर पर कभी
सोचो कुछ उनके बारे में, जिनका दिया जला नहीं । वाह! वाह!! बहुत ही बढ़िया शैर।।
शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें
Comment by Ajay Tiwari on October 22, 2017 at 8:16am

आदरणीय बृजेश जी,

आपकी उदार प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद.

सादर 

Comment by Ajay Tiwari on October 22, 2017 at 8:14am

आदरणीय राम अवध जी,

आभार आपका, गलती किसी से भी हो सकती है. ये कोई बड़ी बात नहीं है.

सादर 

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on October 21, 2017 at 10:57am
क्या कहने आदरणीय बहुत शानदार ग़ज़ल कही है..सादर
Comment by Ram Awadh VIshwakarma on October 21, 2017 at 10:40am
आप सही हैं मैने बह्र को समझने में गल्ती की। ज्ञान वर्धन के लिये शुक्रिया।
Comment by Ajay Tiwari on October 21, 2017 at 9:01am

आदरणीय राम अवध जी,

आपने गलत अरकान पर ग़ज़ल को देखने की कोशिश की है. इस ग़ज़ल की बहर 'रजज़ मुसम्मन मतवी मख़्बून' (मुफ्तइलुन मुफाइलुन  मुफ्तइलुन मुफाइलुन) है. ग़ालिब की मशहूर ग़ज़ल 'दिल ही तो है न संगो-खिश्त दर्द से भर न आए क्यों ' इसी बहर में है. इस बहर के अरकान के हिसाब से देखें मिसरे बिलकुल ठीक है.

प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद.

सादर 

Comment by Ajay Tiwari on October 21, 2017 at 8:50am

आदरणीय सलीम साहब,

प्रशंसा के लिए पुनः हार्दिक धन्यवाद.

सादर

Comment by Ram Awadh VIshwakarma on October 20, 2017 at 5:41pm
आदरणीय तिवारी जी
इसमें कोई दो राय नहीं ग़ज़ल बहुत ही खूबसूरत हुई है।लेकिन बह्र मतला के ऊला मिसरा में ही गड़बड़ा गया है। बह् है
मुस्तफ्इलुन मफाइलुन मुस्तफ्इलुन मुफाइलुन।
2212 1212 2212 1212
साथ ही
"वक्त के आसमान पर " यहाँ भी मूल बह्र में न होकर

फाइलातुन मफाइलुन हो गई है।
2122 1212
हो सकता है आप सही हों। मैने अपने अल्प ज्ञान के अनुसार टिप्पणी की है। सादर
Comment by SALIM RAZA REWA on October 20, 2017 at 8:51am

आदरणीय अजय तिवारी जी ,
पूरी ग़ज़ल खूबसूरत है दिल से मुबारक़बाद ,

कृपया ध्यान दे...

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