३००वीं कृति .... श्रृंगार दोहे ...
मन चाहे करती रहूँ , दर्पण में शृंगार।
जब से अधरों को मिला, अधरों का उपहार।1।
अब सावन बैरी लगे, बैरी सब संसार।
जब से कोई रख गया, अधरों पे अंगार।2।
नैंनों की होने लगी , नैनों से ही रार।
नैन द्वन्द में नैन ही, गए नैन से हार।3।
जीत न चाहूँ प्रीत में , मैं बस चाहूँ हार।
'दे दे मेरी देह को', स्पर्शों का शृंगार।4।
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
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आद सुशील सरना साहब , खुबसूरत ,श्रृंगार रस से ओतप्रोत दोहे के लिए मुबारकवाद स्वीकार करें |
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