221 2121 1221 212
यूँ तीरगी के साथ ज़माने गुज़र गए ।
वादे तमाम करके उजाले मुकर गए ।।
शायद अलग था हुस्न किसी कोहिनूर का ।
जन्नत की चाहतों में हजारों नफ़र गए ।।
ख़त पढ़ के आपका वो जलाता नहीं कभी ।
कुछ तो पुराने ज़ख़्म थे पढ़कर उभर गए।।
उसने मेरे जमीर को आदाब क्या किया ।
सारे तमाशबीन के चेहरे उतर गए ।।
क्या देखता मैं और गुलों की बहार को ।
पहली नज़र में आप ही दिल मे ठहर गए ।।
अरमान भी मिरे थे कि पहुंचेंगे चांद तक ।
इस बेरुखी के दौर में सपने बिखर गए ।।
कुछ खैर ख्वाह भी थे पुराने शजर के पास ।
आयीं जो आँधियाँ तो वो जाने किधर गए ।।
तकदीर हौसलों से बनाने चला था वो ।
आखिर गयी हयात सितारे जिधर गए ।।
---नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
बहुत खूब बधाई
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'सारे तमाशबीन के के चेहरे उतर गए'
'तमाश बीन'का अर्थ है,तमाशा देखने वाला,एक वचन,दूसरी बात 'चेहरे'उर्दू के हिसाब से 212 होगा जबकि सही शब्द है "चहरे"22,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं:-
'सारे तमाशबीनों के चहरे उतर गए'
'अरमान भी मिरे थे कि पहुंचेंगे चाँद तक'
इस मिसरे में शुतरगुर्बा का दोष है,'मिरे'एक वचन 'पहुंचेंगे'बहुवचन,इस मिसरे को यूँ कर सकते हैं :-
'अरमान था ये मेरा कि पहुँचूँगा चाँद तक'
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है।बधाई
आ0 अफरोज सहर साहब शुक्रिया
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