1222, 1222, 1222, 1222
चलो ये मान लेते हैं कि दफ़्तर तक पहुँचती है।
मगर क्या वाकई ये डाक, अफ़सर तक पहुँचती है।
नज़र मेरी सितारों के बराबर तक पहुँचती है।
दिया हूँ, रोशनी मेरी हर इक घर तक पहुँचती है।
वहां कैसा नज़ारा है, चलो देखें, ज़रा सोचें,
नज़र सैयाद की चींटी के अब पर तक पहुँचती है।
शरीफ़ों की हवेली में ये आहें गूँजती तो हैं,
ज़रा धीरे भरो सिसकी, ये बाहर तक पहुँचती है।
किसी से भी पता पूछा नहीं उसने कभी लेकिन,
नदी अपनी मशक्कत से समन्दर तक पहुँचती है।
जुआ उसने नहीं खेला, कभी चाही नहीं सत्ता,
बताओ द्रौपदी क्यों कर के चौसर तक पहुँचती है।
तुम्हारे पैतरेबाजी से दिल्ली दूर रहती है,
हमारी चीख बस नक्सल से बस्तर तक पहुँचती है।
(मौलिक/अप्रकाशित)
--- बलराम धाकड़
Comment
सुख़न नवाज़ी का बहुत बहुत शुक्रिया, मोहतरम जनाब नादिर ख़ान साहब। आपको ग़ज़ल पसंद आई, मेरा लिखना सार्थक हुआ।
सादर
किसी से भी पता पूछा नहीं उसने कभी लेकिन,
नदी अपनी मशक्कत से समन्दर तक पहुँचती है।
जुआ उसने नहीं खेला, कभी चाही नहीं सत्ता,
बताओ द्रौपदी क्यों कर के चौसर तक पहुँचती है।
तुम्हारे पैतरेबाजी से दिल्ली दूर रहती है,
हमारी चीख बस नक्सल से बस्तर तक पहुँचती है।
आदरणीय धाकड़ जी आपने अपने नाम अनुरूप धाकड़ अशआर कहे बहुत पसंद आए ... रचना थोड़ा सा फिनिशिंग टच माँग रही है.... गुणीजनों ने उत्तम सुझाओ दिया है ...
आदरणीय अजय जी,ग़ज़ल में शिरक़त, सुखन नवाज़ी और हौसला अफ़जाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
आपने बहुत बारीक़ी से कहन को समझा, आपके दोनों की सुझाव शिरोधार्य हैं।
सादर।
आदरणीय बलराम जी,
छठे शेर में 'क्यों कर के' थोड़ा खटकता है 'मगर चौसर पे फिर भी द्रौपदी क्यों कर पहुंचती है' या 'बताओ द्रौपदी क्यों कर जुआघर तक पहुँचती है' जैसा कुछ किया जा सकता है.
'शरीफ़ों की हवेली में ये आहें गूँजती तो हैं,
ज़रा धीरे भरो सिसकी, ये बाहर तक पहुँचती है।' अगर सिसकी बहर नहीं पहुँचने देने की बात है तो मेरे ख्याल से पहले मिसरे में 'तो' की जगह 'भी' ठीक रहेगा.
'किसी से भी पता पूछा नहीं उसने कभी लेकिन,
नदी अपनी मशक्कत से समन्दर तक पहुँचती है ' क्या शेर है!
बेहतरीन ग़ज़ल हुई. हार्दिक बधाई.
सादर
आदरणीय समर सर, ग़ज़ल में आपकी शिरक़त और हौसला अफ़जाई का बहुत बहुत शुक्रिया। आपके द्वारा की गई प्रशंसा बेहतर लेखन के लिये सदा ही प्रोत्साहित करती है।
आपकी समझाइश और सुझाव हमेशा ही बेशकीमती और इसीलिये शिरोधार्य होते हैं।
सादर।
जनाब बलराम जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
'दिया हूँ रौशनी मेरी हर इक घर तक पहुंचती है'
दिये की रौशनी कैसे हर इक घर तक पहुँचती है'?
'नदी अपनी मशक़्क़त से समन्दर तख़ पहुंचती है'
ये शैर बहुत पसंद आया ।
सुख़न नवाज़ी का बहुत बहुत शुक्रिया, जनाब मोहतरम अफ़रोज़ साहब।
टंकण त्रुटि की ओर ध्यान आकर्षित करने का आभार। अवश्य सुधार कर लूँगा।
सादर।
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