1222 1222 1222 1222
हक़ीक़त की जुबाँ होकर सदाक़त की सदा होकर
मिला क्या जिंदगी तुझको बता यूँ आइना होकर
उड़ा कर ले गई आँधी सभी अरमाँ सभी सपने
लुटे हम तो ज़माने में मुहब्बत के ख़ुदा होकर
मुहब्बत के चमन में गुल मुक़द्दस खिल नहीं पाये
तगाफ़ुल और रुसवाई मिली बस बावफ़ा होकर
तआरुफ अब मिला जाकर हमें अपनी मुहब्बत का
बनेगी दास्तां सच्ची फ़क़त अब तो फ़ना होकर
हुई सब आम वो बातें जिन्होंने लांघ दी चौखट
तमाशा बन गये आँसू इन आंखों से जुदा होकर
नुमाइश मेरे जख़्मों की जहाँ जिस गाह पर होगी
सनम तुझसे ही जाता है वो मेरा रास्ता होकर
बचे अपनी मुहब्बत के फसुर्दा फूल बरसाना
तेरे कूचे से जब गुजरे जनाज़ा ये मेरा होकर
अभी तक याद है हमको तुम्हारा वो नया चेह्रा
मिले तुम मुख्तलिफ़ अंदाज़ में जब आशना होकर
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया भाई जी .
'मिरा' क़ाफ़िया ठीक है बहना ।
आद० अजय तिवारी जी आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से शुक्रिया आपका .काफिये पर मात्रा गिराने के विषय में जानकारी उपलब्ध कराने का शुक्रिया
आद० समर भाई जी ,इसका मतलब मेरा काफिया जो मेरा के स्थान पर लिया है मिरा वो सही है आपके मार्गदर्शन का दिल से शुक्रिया भाई जी
आदरणीया राजेश कुमारी जी, उम्दा ग़ज़ल हुई है. हार्दिक बधाई. मतला लाजबाब है.
काफिया जिस हर्फ़ पर कायम होता है उसे नहीं गिराया सकता. काफिये के बाकी हिस्सों को गिराया जा सकता है.
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे - अहमद फ़राज़
इस शेर की बह्र 'मुज्तस मुसम्मन मखबून महजूफ़ मुस्क्किन ' (मफाइलुन फ़इलातुन मफाइलुन फेलुन - 1212 1122 1212 22) है. इस शेर में 'ऊँ' को गिराया गया है जिसकी इजाजत है. लेकिन 'ऊँ' से पहले के ' ा' को नहीं गिराया जा सकता. अगर 'ऊँ' नहीं होता और काफिया सिर्फ ' ा' (अलिफ़) का होता तो उसे गिराया जाना मुमकिन नहीं होता.
सादर
बहना, मैं इसी बिन्दू को साझा करना चाहता था कि क़ाफिये में मात्रा गिराना मना है,लेकिन उसकी भी शर्त है ,अब जैसे आपने क़ाफ़िया लिया है 'मेरा'तो इसे मात्रा गिराकर 'मिरा' कर सकते हैं लेकिन इसे 'मेर' नहीं कर सकते,यानी आगे की मात्रा नहीं गिरा सकते,उम्मीद है आपका और आरिफ़ भाई का संशय दूर हुआ होगा ?
आद० मोहम्मद आरिफ़ जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ बहुत बहुत शुक्रिया .आपका संशय भी वही है जो मेरा है समर भाई जी पता करके पुख्ता जानकारी देंगे
आद० समर भाई जी .आदाब ग़ज़ल पर आपकी शिरकत और प्रतिक्रिया का सदैव इन्तजार रहता है जाँ को सुकून मिला कि आपको ग़ज़ल पसंद आई आपने बहुत अच्छी इस्स्लाह दी अंतिम शेर में तुम कि जगह थे ज्यादा ठीक रहेगा .
और भाई जी सातवें शेर में मेरा अर्थात काफिया में मात्रा गिराना सही है या नहीं लिखते वक़्त मैं खुद इस असमंजस में थी आप अरुज के अनुसार मेरे इस संशय का समाधान कीजिये ताकि इसके स्थान पर कोई मुनासिब लफ्ज़ ढूँढ सकूँ .
आदरणीया राजेश कुमारी जी आदाब,
इश्क़ के विविध रंगों में रंगी बेहतरीन ग़ज़ल । मुहब्बत का हर शे'र बढ़िया है । आगे मैं आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की बात को आगे बढ़ाते हुए पूछना चाहूँगा कि क्या रदीफ और काफिए में मात्रा गिराने की छूट का लाभ मिलता है ।बाक़ी हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
बहना राजेश कुमारी जी आदाब,बहुत उम्दा ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
जहाँ तक मेरी मालूमात है, क़ाफ़िए में मात्रा गिराने की इजाज़त नहीं होती,मेरा इशारा सातवें शैर की तरफ़ है ।
आख़री शैर के सानी मिसरे में 'तुम' की जगह "थे" कर लें तो मज़ा आ जाए ।
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