2122 2122 2122 212
आज अपना सारा ईगो ही जला देता हूँ मैं
बर्फ़ रिश्तों पर जमी उसको हटा देता हूँ मैं
मेरे होने की घुटन तुमको न हो महसूस अब
ज़िन्दगी खोने का खुद को हौसला देता हूँ मैं
नाम दूँ बदनामियाँ दूँ, मेरे वश में है नहीं
सो मेरे होठों को चुप रहना सिखा देता हूँ मैं
तेरे चहरे पर शिकन संकोच अब आए नहीं
इसलिए सौगात में अब फ़ासला देता हूँ मैं
कुछ नहीं बस हार इक ला कर चढ़ा देना प्रिये
घाट पर सोया मिलूँगा ये बता देता हूँ मैं
मौलिक अप्रकाशित
Comment
अज़ीज़म,मतले के ऊला मिसरे में 'मेरे' शब्द को निकालने के लिए ही मैंने मिसरा सुझाया था,क्योंकि रदीफ़ 'हूँ मैं' है,इस लिहाज़ से 'अपने'शब्द रखा था,फिर से ग़ौर करें :-
'आज अपने सारे ख़्वाबों को जला देता हूँ मैं'
और जो आपने सानी मिसरे में 'मिटा' क़ाफ़िया लिया है वो भी सही नहीं है,क्योंकि 'बर्फ़' शब्द के साथ 'मिटा' नहीं "हटा" शब्द मुनासिब होगा,ग़ौर करें ।
आख़री शैर के सानी मिसरे में ऊपर के क़वाफ़ी तब्दील होने के बाद,अब क़ाफ़िया ठीक है ।
संशोधन के साथ फिर प्रस्तुत
आदरणीय सुरेंद्र सर सेादर अभिवादन, नव वर्ष की हार्दिक शुभकामना।
आदरणीय तस्दीक सर ग़ज़ल को अपना आशीर्वाद प्रदान करने के लिए बहुत-बहुत आभार
आदरणीय बाबूजी सादर प्रणाम आपका सुझाव सर्वथा उचित है अभी ढूंढता हूं कि क्या सुधारा जा सकता है
जनाब तस्दीक़ साहिब, "यह बता" कैसे किया जा सकता है,क़ाफ़िया तो "ला" का है?
आद0 पंकज मिश्र जी सादर अभिवादन। बहुत बेहतरीन ग़ज़ल कही आपने, बहुत दिन आप मंच पर भी आये। नव वर्ष की शुभकामनाओ संग शैर दर शैर मुबारकबाद कुबूल करें। सादर।
जनाब पंकज साहिब ,अच्छी ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
आखरी शेर के सानी मिसरे में शब्द इत्तलाअ की जगह (यह बता) किया जा सकता है ।
अज़ीज़म पंकज कुमार मिश्रा आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
मतले का ऊला मिसरा मेरे ख़याल से यूँ कहना बहतर होगा :-
'आज अपने सारे ख़्वाबों को जला देता हूँ मैं'
आख़री शैर में क़ाफ़िया दोष है,सही शब्द है "इत्तिलाअ",देखियेग ।
आदरणीय अफ़रोज़ जी सादर आभार
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