कमरे में घुसकर उसने रूम हीटर ऑन किया। तभी उसे दोबारा कुतिया के कराहने की आवाज़ सुनाई दी। वह हॉस्पिटल की भागमभाग से बहुत अधिक थका हुआ था जिसके कारण उसकी इच्छा तुरन्त सोने की हो रही थी लेकिन कुतिया की लगातार दर्द औऱ कराहती आवाज उसकी इच्छा पर भारी पड़ी।
सोहन बाहर आकर इधर-उधर देखा। बाहर घना कुहरा था जिसकी वजह से बहुत दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था। स्ट्रीट लाइट का प्रकाश भी कुहरे के प्रभाव से अपना ही मुँह देख रहीं थी। बर्फीली हवा सर्दी की तीव्रता को और बढ़ा रही थी जिससे ठंडी बदन के आखिरी छोर तक पहुँच रही थी। सोहन सड़क पर चारो ओर देख रहा था कि उसकी नजर सड़क के किनारे फटे बोरे और प्लास्टिक के बीच काँपती कुतिया पर पड़ी। पहले तो उसने सोचा कि अत्यधिक ठंड से यह काँप रही है पर पास जाकर देखा तो माजरा समझ मे आ गया।
कुतिया प्रसव पीड़ा में थी। उसे खुले आकाश के नीचे कपकपाती सर्दी में बच्चा देते देख सोहन एक बार तो सिहर गया। कुतिया की बेवशी उसे अंदर तक झकझोर रही थी। उसे गाँव में बिताया अपना बचपन याद आ गया जब भूसे के घर में, पुआल की छाँव में या पेड़ पौधे के सघन झुरमुटों के बीच हर तरह से सुरक्षित होकर कुतिया बच्चे देती थी, जहाँ उसके लिए व्यापक परिस्थितिकी उपलब्ध होती थी। पर यहाँ शहर में ऊँचे ऊँचे अट्टालिकाओं और हाई प्रोफाइल लोगों के बीच उसके लिए सिवाय सड़क अब और कोई जगह शायद है भी नहीं।
विगत दो दिनों से सोहन अपनी पत्नी को लेकर हॉस्पिटल में व्यस्त रहा था और आज ही उसे पुत्री प्राप्ति हुई थी। उसने प्रसव पीड़ा के साथ उस क्षण होने वाली परेशानियों को बहुत गहराई से महसूस किया था। कुतिया को ऐसी दशा में देख कुछ समय पहले का हॉस्पिटल का एक एक दृश्य उसके आंखों के सामने तैरने लगा। बस अंतर इतना कि वहाँ एक मानव का बच्चा जन्म ले रहा था जिसके पीछे तमाम सुख सुविधाओं के साथ साथ हॉस्पिटल में डॉक्टरों और नर्सों की फौज खड़ी थी और यहाँ एक जानवर खुले आकाश के नीचे बिना किसी सहायता के बच्चे देने के लिए मजबूर है, या यूँ कहें कि मानव ने ही उसे ऐसा करने के लिए मजबूर कर दिया है।
सोहन की मानवीय सम्वेदना इस समय उफान पर थी। उसने अपने घर के एक कोने में कुतिया के लिए जगह बनाकर उसे सुरक्षित किया। जब हर तरह से सन्तुष्ट हो गया तो सोने चला गया।
पर अब सोहन के आंखों में नींद कहाँ? उसका मन अनन्त प्रश्नों के भंवरजाल में उलझ चुका था। वह बार बार अपने से प्रश्न कर रहा था कि आखिर यह धरती केवल मानव की तो बपौती नहीं? फ़िर हर जगह इंसानों ने ही कब्जा क्यों जमा लिया? एक तरफ जंगलों को काट कर जानवरों से उनके निवास स्थलों को छीन लिया तो दूसरी ओर वहीं नगरीय संस्कृति में उनके लिए कोई वास नहीं छोड़ा। इंसान दिन प्रतिदिन अपने को एक से बढ़कर एक बेहतर सुख-सुविधाओं से लैश कर रहा है पर इनके बीच क्या वह किसी और के बारे में भी सोच रहा है? ईश्वर ने इन्सान और जानवरों को एक दूसरे का पूरक बनाया था पर स्वार्थ में अंधा हो इंसान सिर्फ अपने लिए क्यों जीने लगा है?
सोहन को ऐसा लग रहा था जैसे सभी जानवर समवेत स्वर में उससे यहीं पूछ रहे हों- "भाई! इंसानों के बीच इस धरती पर हमारे हिस्से की जमीं कहाँ है"?
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सुंदर कथा हुई है । हार्दिक बधाई ।
अपने लिये सुविधाओं की परवाह करते हुये इंसानों ने जानवरों के हिस्से की जमीन हड़प ली ।कितना दुखद है मानव होकर मानवता के आभास का ना होना ।
आद0 शेख शहज़ाद उस्मानी साहब सादर अभिवादन। लघुकथा में मैंने आपसे बहुत कुछ सीखा है। आपकी उपस्थिति और हौसला अफ़जाई के लिए कोटिश आभार आपका। सादर
आद0 सलीम रज़ा साहब सादर अभिवादन। लघुकथा पसन्द आयी, लिखना सार्थक हुआ।इसे कहानी में बदलना नहीं चाह रहा था इसलिए यहीं लाकर छोड़ दिया। आपकी बेहतरीन प्रतिक्रिया और बधाई के लिए हृदय तल से आभार
आद0 नीलम उपाध्याय जी सादर अभिवादन।लघुकथा पसन्द आयी, लिखना सार्थक हुआ। बहुत बहुत आभार आपकी बधाई संदेश का।सादर
बहुत सुंदर। उपरोक्त टिप्पणियों में सब कुछ कह दिया गया है। इस बढ़िया रचना के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ जी, नमस्कार । आज की मशीनी जिंदगी जी रहे समाज में इंसान में संवेदना मार्टी जा रही है । एक जानवर के प्रति संवेदनशीलता प्रदर्शित करती बहुत ही अच्छी लघु कथा । बधाई स्वीकार करें ।
आद0 मोहम्मद आरिफ जी सादर अभिवादन। निश्चय ही कथानक थोड़ा लम्बा है, पर विषय विशारद होने के कारण छोटा करना उचित नहीं समझा। आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया और हौसला अफजाई से बल मिला है। आपका हृदय तल से आभार।
आदरणीय सुरेंद्रनाथ जी आदाब,
काफी लंबे कथानक को खींचा आपने । यह लघुकथा रेखांकित करती है कि मानव और जानवर के बीच धरती के बँटवारे में प्रजनन की समस्या भी विकट होती जा रही है । आजकल जानवरों को भी प्रजनन हेतु मुश्क़िलों का सामना करना पड़ रहा है ।मानव ने अपने चारों ओर पैर पसार लिए हैं । इंसानी जनसंख्या का साम्राज्य पर्यावरण और प्राणियों के लिए ख़तरा बन गया है । अच्छी संवेदनामूलक लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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