बह्र-फऊलुन फऊलुन फऊलुन फऊलुन
अँधेरे से निकलें उजाले में आयें।
नये साल में कुछ नया कर दिखायें।
गमों का लबादा जो ओढ़े हुये हैं,
उसे फेंक कर हम हँसें मुस्करायें।
जो चारो दिशाओं में खुशबू बिखेरे,
बगीचे में ऐसे ही पौधे लगायें।
न झगडें कभी धर्म के नाम पर हम,
किसी का कभी भी लहू ना बहायें।
न नंगा न भूखा न बेघर हो कोई,
चलो हम सभी ऐसी दुनिया बसायें।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय राम अवध जी, खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. जो गलतियाँ है वो उपेक्षणीय हैं. हार्दिक बधाई.
आद0 राम अवध जी सादर अभिवादन। बेहतरीन ग़ज़ल कही आपने।शैर दर शैर दाद और मुबारकबाद कुबूल फरमायें। सादर
जनाब राम अवध साहिब , नए साल पर सुन्दर ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें । शेर 2 उला मिसरे को यूँ कर सकते हैं (जो ओढ़े हुए हैं गमों का लबादा ),और सानी मिसरे में उसे की जगह उन्हें करलीजिये
शेर 5 के उला मिसरे को यूँ कर सकते हैं "न नंगे न भूखे न बेघर जहां हों "।
जनाब राम अवध जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई,बधाई स्वीकार करें ।
दूसरे शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ और ऐब-ए-तनाफ़ुर है ।
5वें शैर के ऊला में भी ऐब-ए-तनाफ़ुर है, देखियेग ।
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