212 1222 212 1222
बज़्म ये सजी कैसी कैसा ये उजाला है
महकी सी फ़ज़ाएँ हैं कौन आने वाला है
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चाँद जैसे चेहरे पे तिल जो काला काला है
मेरे घर के आँगन में सुरमई उजाला है
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इतनी सी गुज़ारिश है नींद अब तू जल्दी आ
आज मेरे सपने में यार आने वाला है
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जागना वो रातों को भूक प्यास दुख सहना
माँ ने अपने बच्चों को मुश्किलों से पाला है
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उसके दस्त-ए-क़ुदरत में ही निज़ाम-ए-दुनिया है
इस जहान-ए-फ़ानी को जो बनाने वाला है
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मुफ़लिसी से रिश्ता है ग़म से दोस्ती अपनी
मुश्किलों को भी हमने दिल मे अपने पाला है
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उसकी शोख़ नज़रों का ये कमाल है देखो
ज़िंदगी में अब मेरी हर तरफ उजाला है
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भूल वो गया मुझको ग़म नहीं रज़ा लेकिन
उसकी याद को दिल में अब तलक सँभाला है
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मौलिक व अप्रकाशित
Comment
'इतनी सी गुज़ारिश है, नीद अब तो जल्दी आ
ख़्वाब में मेरे मेरा यार आने वाला है'
इस शैर में 'नीद' की जगह "नींद" होना था,दूसरी बात ये कि 'तो' की जगह "तू",और तीसरी बात ये कि नींद से जल्दी आने की गुज़ारिश अजीब लगती है,गुज़ारिश उससे की जाती है जिसका कोई वजूद हो,मन्तिक़ के हिसाब से ये सही नहीं है, और इस शैर के सानी मिसरे में "मेरे मेरा' भी खटकता है, और फिर ये बात कि किसी के ख़्वाब में आने के बारे में पहले से पता होना भी तार्किकता(मन्तिक़)के लिहाज़ से अजीब है,आपने पूछा तो बता दिया ।
जनाब सलीम रज़ा साहिब आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
तीसरा शैर और समय चाहता है ।
'उसके दस्ते क़ुदरत में ही निज़में दुनिया है'
इस मिसरे को इस तरह लिखें :-
'उसके दस्त-ए-क़ुदरत में ही निज़ाम-ए- दुनिया है'
'उसकी शौख़ नज़रों ने ज़िन्दगी बदल डाली
ज़िन्दगी में अब मेरी हर तरफ़ उजाला है'
इस शैर के दोनों मिसरों में 'ज़िन्दगी'शब्द खटक रहा है,ऊला मिसरा यूँ कर सकते हैं :-
'उसकी शौख़ नज़रों का ये कमाल है देखो'
एक अरसे बाद आपकी प्रस्तुति पर आ पा रहा हूँ आदरणीय सलीम रज़ा साहब. आपकी कोशिश अच्छी लगी है. वैसे क़ाफ़ियाबन्दी में आपका हाथ इतना तंग नहीं होना था.
दूसरे, इतनी सी गुज़ारिश है नीद ज़रा जल्दी आ.. की तक्तीह आवश्यक प्रतीत हो रही है.
इस ग़ज़ल के लिए शुभकामनाएँ ..
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