2122 1122 1122 22
जहर कुछ जात का लाओ तो कोई बात बने ।
आग मजहब से लगाओ तो कोई बात बने ।।
देश की शाख़ मिटाओ तो कोई बात बने ।
फ़स्ल नफ़रत की उगाओ तो कोई बात बने ।।
सख़्त लहजे में अभी बात न कीजै उनसे।
मोम पत्थर को बनाओ तो कोई बात बने ।।
अब तो गद्दार सिपाही की विजय पर यारों ।
याद में जश्न मनाओ तो कोई बात बने ।।
जात के नाम अभी तीर बहुत तरकस में ।
अम्न को और मिटाओ तो कोई बात बने ।।
बस सियासत में अटक जाए न वो बिल वाजिब ।
शोर संसद में मचाओ तो कोई बात बने ।।
इस तरह फर्ज निभाने की जरूरत क्या है ।
साथ ता उम्र निभाओ तो कोई बात बने ।।
रस्म करते हो अदा खूब ज़माने भर की ।
हाथ दिल से जो मिलाओ तो कोई बात बने ।।
जिंदगी कर्ज चुकाने में गुज़र जाती है ।
चैन कुछ ढूढ़ के लाओ तो कोई बात बने ।।
कर गई तुझको जो मशहूर मुक़द्दर बनकर ।
वो ग़ज़ल आज सुनाओ तो कोई बात बने ।।
घर जलाना तो बड़ी बात नहीं है साहिब ।
एक घर अपना बनाओ तो कोई बात बने ।।
यूँ दिवाली के चिरागों से भला क्या होगा ।
ज्ञान का दीप जलाओ तो कोई बात बने ।। -
--नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अ प्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार सर
भाई मनोज अहसास जी सप्रेम आभार । ग़ज़ल का प्रत्येक शेर अपने आप मे स्वतन्त्र रचना रचना के समान होता है । किसी शेर का सम्बंध दूसरे शेर से हो यह ग़ज़ल विधा में आवश्यक नहीं माना गया है । इसलिए हर शेर में रदीफ़ एक ही बात का समर्थन करे यह आवश्यक नहीं हैं ।
बहुत खूब ग़ज़ल हुई है सर
एक जिज्ञासा है
आपने पूरी ग़ज़ल में रदीफ़ 'कोई बात बने' को दो अर्थों में लिया है एक तो व्यंग्य के रूप में कुरीतियों कुनीतियों पर प्रहार किया है
दूसरे आपने उसे प्रसंसात्मक रूप में लिया है
मुझे ये थोड़ा अजीब लग रहा है
थोड़ा प्रकाश डालने की कृपा करें
सादर
हार्दिक बधाई।
आ0 श्याम नारायण वर्मा साहब विशेष आभार ।
आ0शेख शहजाद साहब हार्दिक आभार ।
बहुत ही विचारोत्तेजक, व्यंगात्मक यथार्थपूर्ण अशआर के साथ बेहतरीन सृजन के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी। इस दौर में ऐसी रचनाओं की हम सबको बहुत ज़रूरत है। कृपया मंच पर अन्य विधाओं की रचनाओं का भी अवलोकन कर टिप्पणियों से हमें लाभान्वित कीजिए। सादर।
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