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छुपती कहाँ है आग दहकती जरूर है ।।
यादों में उनकी आंख फड़कती जरूर है ।।
खुशबू तमाम आई है उनके दयार से ।
गुलशन की वो हवा भी महकती जरूर है ।।
बुलबुल की शोखियों की बुलन्दी तो देखिए ।
बुलबुल बहार में तो चहकती जरूर है ।।
हसरत है देखने की तो आशिक मिजाज रख ।
चहरे से हर नकाब सरकती जरूर है ।।
रहना जरा सँभल के मुहब्बत की वस्ल में ।
अक्सर हया नज़र से टपकती जरूर है ।।
मतलब परस्तियों की जमीं पे न घर बना ।
दीवार एक दिन में दरकती जरूर है ।।
जाना अगर है दिल मे तो पहरों पे हो नज़र ।
दरबान की भी आंख झपकती जरूर है ।।
आशिक की हो पहुँच में यहां हुस्ने गुल तमाम ।
गुल से लदी हो शाख़ लचकती जरूर है ।।
कमसिन अदा को देख ज़माना ये कह रहा ।
इस उम्र में निगाह बहकती जरूर है ।।
गायब है उसका चैन उड़ी नींद रात की ।
पाज़ेब कोई रात खनकती ज़रूर है ।।
आती क़ज़ा से पहले ही इजहारे इश्क़ हो ।
प्यासी रही जो रूह भटकती जरूर है ।।
-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
नवीन भाई बहुत ही प्यारी ग़ज़ल हुई है।।बहुत बहुत बधाई आपको
आ0राम अवध विश्वकर्मा साहब सादर आभार ।
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल हुई है. रदीफ काफिये का निर्वहनन सलीके से हुआ है।आदर्णीय बधाई
आ0 काली पद साहब सादर आभार । अवश्य कबीर सर और अजय तिवारी सर के कमेंट की प्रतीक्षा मुझे भी है ।
आ0 सुशील सरना साहब विशेष आभार
छुपती कहाँ है आग दहकती जरूर है ।।
यादों में उनकी आंख फड़कती जरूर है ।।
खुशबू तमाम आई है उनके दयार से ।
गुलशन की वो हवा भी महकती जरूर है ।।
वाह आदरणीय वाह क्या गज़ब के अशआर कहे हैं आपने। इस बेहतरीन अहसासों की ग़ज़ल के लिए दिल से बधाई स्वीकार करें।
आ नवीन मणि जी ग़ज़ल बहुत उम्दा हुई है | मुबारकबाद कुबूल करे | बाकि गुणी जन बताएँगे |
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