काफिया : आब ; रदीफ़ : में
बहर : २२१ २१२१ १२२१ २१२
चहरा छुपा रखा है’ सनम ने नकाब में
मुहँ बंद किन्तु भौंहे’ चड़ी हैं इताब में |
इंसान जो अज़ीम है’ बेदाग़ है यहाँ
है आग किन्तु दाग नहीं आफताब में |
जाना नहीं है को’ई भी सच और झूठ को
इंसान जी रहे हैं यहाँ’ पर सराब में |
इंसां में’ कर्म दोष है’, जीवात्मा’ में नहीं
है दाग चाँद में, नहीं’ वो ज्योति ताब में |
मदहोश जिस्म और नशीले है’ नैन भी
मय से अधिक नशा है’ तुम्हारे शबाब में |
इक जाम जो पिलाया’ मुझे तुमने’ आँख से
वो अम्न का नशा तो’ नही इस शराब में |
जो एक बार तू ने’ पिलाया सुरा मुझे
कटता तमाम वक्त ते’रे इज़्तिराब में |
क्या हुस्न का बयान करूँ आपके सनम
ऐसा है जो कि आग लगाता है आब में |
मौलिक एवं अप्रकाशित
ज्योतिताब =चाँदनी, उष्मा
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
'ज्योति ताब' शब्द पहली बार पढ़ा है ।
वैसे आठ अशआर हैं,एक की क़ुर्बानी भी दी जा सकती है ।
महताब के बदले " ज्योति ताब या रश्मि ताब ' हो सकते है , मैंने ज्योति ताब कर दिया |देख लीजिये,आदाब
'ने' के बाद 'निक़ाब' लिखने से ऐब-ए-तनाफ़ुर नहीं होता,ऐब-ए-तनाफ़ुर पर "ग़ज़ल की बातें" समूह में आलेख मौजूद है,देखियेगा ।
'है दाग़ चाँद में,नहीं वो माहताब में'
इस मिसरे में चाँद और माहताब ऐक हैं,आपने ध्यान नहीं दिया,,इस मिसरे को यूँ करें तो आपका कहा हुआ भाव किसी हद तक आ जायेगा:-
'क़ब चाँदनी में दाग़ है जो माहताब में'
हार्दिक बधाई।
आदरणीया ब्रजेश कुमार जी , आदाब ,ग़ज़ल पर शिरकत करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया |
आदरणीय समर कबीर साहिब आदाब , आपने हर शेर को थोड़ा थोड़ा परिवर्तन कर उन्हें लाजवाब बना जिया |बहुत बहुत शुक्रिया |पहला शेर में मैंने 'सनम ने 'लिखा था बाद में वो किया क्योकि उसके बाद नकाब आ रहा था| ने,न ,इसका अर्थ यही हुआ मुझे ऐब -ऐ -तानाफुर की समझ सही नहीं है | या इसको अभी मानते नहीं है | कृपया प्रकाश डाले |
माहताब मैं चांदनी के लिए उपयोग किया है गलती से आफ़ताब लिखा गया |
बाकी मैं आपके सुझाव के अनुसार परिवर्तन कर लेता हूँ | तहे दिल से शुक्रिया |आदाब
जनाब कालीपद प्रसाद मण्डल जी आदाब, ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
मतला यूँ करें :-
'चहरा छुपा रखा है सनम ने निक़ाब में
मुँह बन्द किन्तु भौहें चढ़ी हैं इताब में'
दूसरा शैर यूँ कर लें :-
"इंसान जो अज़ीम है, बेदाग़ है यहाँ
है आग किन्तु दाग़ नहीं आफ़ताब में'
तीसरा शैर यूँ कर लें :-
'जाना नहीं है कोई भी सच और झूट को
इंसान जी रहे हैं यहाँ पर सराब में'
4थे शैर में ' चाँद'और 'माहताब' एक ही हैं,यानी चाँद को माहताब भी कहते हैं।
पांचवें शैर को यूँ कर लें :-
'मदहोश जिस्म और नशीले हैं नैन भी
मय से अधिक नशा है तुम्हारे शबाब में'
छटा शैर यूँ कर लें :-
'इक जाम जो पिलाया मुझे तुमने आँख से
वो अम्न का नशा तो नहीं इस शराब में'
आख़री शैर यूँ कर लें :-
'क्या हुस्न का बयान करूँ आपके सनम
ऐसा है जो कि आग लगाता है आब में'
"आफ़ताब" का अर्थ सूरज है चाँदनी नहीं ।
अच्छी ग़ज़ल कही आदरणीय..बाकी गुणीजन अपनी राय देंगे..
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