2122 2122 212
बेखुदी की जिंदगी है आजकल ।
खूब सस्ता आदमी है आजकल ।।
जी रहे मजबूरियों में लोग सब।
महफिलों में ख़ामुशी है आजकल ।।
लग रही दूकान अब इंसाफ की ।
हर तरफ़ कुछ ज़्यादती है आजकल।।
छोड़ कर तन्हा मुझे मत जाइए ।
कुछ जरूरत आपकी है आजकल ।।
अब नहीं मिलता कोई मुझसे यहां।
बर्फ रिश्तों पर जमी है आजकल ।।
आपके हर कातिलाना वार से ।
फैल जाती सनसनी है आजकल ।।
मैकदे में शोर बरपा है बहुत ।
जाम पर रस्सा कसी है आजकल।।
रिन्द खोते जा रहे सारा अदब ।
जाने कैसी तिश्नगी है आजकल।।
हुस्न पर पर्दा न इतना कीजिये ।
हुस्न की ही बन्दगी है आजकल ।।
क्या भरोसा रह गया है यार का ।
वह निभाता दुश्मनी है आजकल ।।
अब नहीं जाना मुझे उसकी गली ।
वह कहाँ पहचानती है आजकल।।
इक हसीना खेलने के वास्ते ।
दिल हमारा मांगती है आजकल ।।
---नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
बहुत खूब आदरणीय
खूबसूरत ग़ज़ल हुई है आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी
बहुतखूब बहुतखूब आदरणीय त्रिपाठी जी..
आ0 मुहम्मद आरिफ साहब तहे दिल से शुक्रिया ।
वाह! वाह!! मज़ा आ गया ! मज़ा आ गया !! बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही । शोर भी है, शिकवा भी है , ताज़गी भी और सामयिकता का पुट भी । हार्दिक बधाई आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी ।
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