बह्र - फऊलुन फऊलुन फऊलुन फउल
न छत है न कोई भी दीवार है।
मेरा घर भी कितना हवादार है।
हुनरमन्द होकर भी बेकार है।
अजीबोगरीब उसका किरदार है।
जिसे दूर तक सूझता ही नहीं,
वही इस कबीले का सरदार है।
भले ही जुदा धड़ से सर होगया,
अभी भी मेरे सर पे दश्तार है।
वो शेखी पे शेखी बघारे तो क्या,
सभी जानते हैं वो मुरदार है।
दवा का असर कोई होगा नहीं,
वो तन से नहीं मन से बीमार है।
अदालत से बेशक बरी हो गया,
मग़र आदमी वो गुनहगार है।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
बहुत ही शानदार ग़ज़ल कही आदरणीय..सादर
बहुत खूब...
अच्छी गज़ल के लिए दिल से बधाई, आदरणीय राम अवध जी
आदर्णीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी ग़ज़ल सराहना के लिये सादर आभार।
आद0 राम अवध विश्वकर्मा जीसादर अभिवादन। बढिया ग़ज़ल कही आपने। शैर दर शैर मुबारक पेश करता हूँ।
आदर्णीय तस्दीक़ अहमद साहब आपके द्वारा की गई सारगर्भित टिप्पणी के लिये बहुत बहुत शुक्रिया। दशतार की जगह दस्तार कर लूँँगा।
जनाब राम अवध साहिब , उम्दा ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें।
शेर4 में सानी मिसरे में मेरे की जगह मगर करने से और अच्छा हो सकता है , सही शब्द दस्तार है दशतार नहीं , देखियेगा ।
ग़ज़ल सराहना के लिये आदर्णीय तेज वीर सिंह जी सादर धन्यवाद
सादर आभार आदर्णीय उसमानी साहब हौसलाअफजाई के लिये
हार्दिक बधाई आदरणीय राम अवध विश्वकर्मा जी।बेहतरीन गज़ल।
जिसे दूर तक सूझता ही नहीं,
वही इस कबीले का सरदार है।
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