बह्र- मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन
संगत खराब थी तभी गुन्डा निकल गया।
अब क्या बतायें हाथ से बेटा निकल गया।
घर से निकल गया मेरे इक दिन किरायेदार,
अच्छा हुआ जो पाँव से काँटा निकल गया।
जिसको खरा समझ के खरीदा था हाट से,
किस्मत खराब थी मेरी खोटा निकल गय।
देखो तो धूल झोंक अदालत की आँख में,
होकर बरी वो ठाठ से झूठा निकल गया।
हिन्दू का घर हो या कि मुसलमान का हो घर,
घर घर अलख जगाता कबीरा निकल गया।
चलते समय जो माँ ने मुझे दी थी कुछ रकम,
काम आया राह का मेरे खर्चा निकल गया।
ऐ शाख तुझसे अब मेरा रिश्ता नहीं रहा,
कहकर हवा के साथ में पत्ता निकल गया।
दुश्मन पे वार करना था तलवार से मग़र,
कमबख्त ऐसे वक्त में हत्था निकल गया।
कितने दिनों से भूलभुलैया में थे फँसे,
रहमत हुई जो उसकी तो रस्ता निकल गया।
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
खूब ग़ज़ल कही आदरणीय...
आ. भाई राम अवध जी , सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय राम अवध जी, नमस्कार।
बहुत ही खूबसूरत गजल ..मुबारकबाद कुबूल करें।
आदर्णीया अनीता जी बहुत बहुत शूक्रिया।
आदर्णीय तस्दीक़ अहमद साहब ग़ज़ल पसन्दगी और इस्लाह के लिये शुक्रिया।
बहुत अच्छी ग़ज़ल
जनाब राम अवध साहिब ,सुन्दर ग़ज़ल हुई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं । शेर3 सानी अगर यूँ करलें तो और अच्छा हो सकता है।
"किस्मत को क्या कहें वही खोटा निकल गया "
आदर्णीय मोहम्मद आरिफ साहब हौसलाअफजाई के लिये शुक्रिया। वर्तनी में गल्तियाँ हुई हैं ।ध्यान आकर्षित करने के लिये पन: शुक्रिया
आदरणीय राम अवध जी आदाब,
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल । सबकुछ समा दिया आपने इस ग़ज़ल में । शिकायत भी है , राहत भी है और ऐक्य की बात भी । वाह ! मज़ा आ गया । कुछ वर्तनीगत अशुद्धियाँ हैं । मेरी ओर दिली मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
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