आत्मा के
कल-कल छल-छल जल में
शब्दों की ध्वनियाँ तैरती है
देर तक गूँजती रहती है
तब बहुत बेईमानी लगता है
इस युग के मुहाने की छाती पर
नंगे पैर खड़े होकर चलना
समझौतों के ताबीज पहनना
मक्कारी का मंत्र जाप करना
रोज़ आत्मा का गला घोटना
खंडित-खंडित होकर
अखंडित समाधि बनना
बहुत बेईमानी लगता है
इस युग के रिश्तों में जीना
जहाँ रिश्तों में डाका पड़ा है
ख़ूनी हाथ अट्टहास करते हैं
अकेलेपन की साँसें थम गई है
रातरानी को लकवा हो गया है
गुलाब सारे लहू पी रहे हैं
बहुत बेईमानी लगता है
इस युग के पर्यावास पर चर्चा करना
आँगन के बरगद की खोह में
ज़हरीले नागों ने बना ली है बस्ती
पक्षियों के कलरव की हो गई है हत्या
तोता-मैना , कबूतर के फेफड़ों में
जमा हो गई है कार्बन
किंगफिशर नज़र नहीं आते
कठफोड़वा को नहीं मिलता ठूँठ
मोबाइल टॉवर के ऊँचे मचान पर
चिड़िया करती है नाकाम कोशिश
हाई रेडिएशन ने कैंसर को ज़िंदा कर दिया है
बहुत बेईमानी लगता है
इस युग की कविता को पढ़ना-सुनना
जहाँ कविता की नदी सूखकर रेत हो गई है
गर्म रेत पर सौंदर्यानुभूति तड़पती है
भावों-विचारों को चक्कर आते हैं
प्रतीकों और बिम्बों के पैर लड़खड़ाते हैं
कैनवास की हड्डियाँ निकल गई हो
बहुत बेईमानी लगता है
इस युग के चरित्र को बेशर्म आँखों से देखना ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Comment
दाद-ओ-तहसीन का बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय लक्ष्मण धामी जी । लेखन सार्थक हुआ ।
आ. भाई आरिफ जी, सुंदर कविता हुई है । हार्दिक बधाई ।
दाद-ओ-तहसीन का बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय बृजेश कुमार जी । लेखन सार्थ क हो गया ।
बहुतखूब कविता कही आदरणीय आरिफ जी..भावों का बेहतरीन चित्रण..बधाई
रचना पर अपनी निरपेक्ष टिप्पणी देने का बहुत-बहुत आभार आदरणीय सोमेश कुमार जी ।
नि शब्द हूँ इस भावना से
कविता करना जानता नहीं वैसे भी कविता एक बनावट का आभास कराती है सच्ची भावना दिल को छू खुद कविता हो जाती है
तहे दिल से इस भावभीन रचना पर मुबारकां
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय सलीम रज़ा साहब ।
बहुत-बहुत आभार आदरणीय तेजवीर सिंह जी ।
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय तस्दीक़ अहमद साहब ।
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