दबे पाप ऊपर जो आने लगे हैं
सियासत में सब तिलमिलाने लगे हैं।१।
घोटाले वो सबके गिनाने लगे हैं
मगर दोष अपना छिपाने लगे हैं।२।
वतन डूबता है तो अब डूब जाये
सभी खाल अपनी बचाने लगे हैं।३।
रहे कोयले की दलाली में खुद जो
गजब वो भी उँगलीउठाने लगे हैं।४।
दिया था भरोसा कि लुटने न देंगे
वही बेबसी अब जताने लगे हैं।५।
दसक भर जो पाले हुए थे लुटेरे
कुटिलता से वो मुस्कुाने लगे हैं।
पुरानी हुई चौथे खम्भे की रीतें
वहाँ भी तो यारी निभााने लगे हैं।७।
कभी सीना छप्पन जो हुंकारते थे
वही आज आँसू बहाने लगे हैं।८।
मौलिक-अप्रकाशित
Comment
ठीक है,लेकिन 4थे शैर का सानी मिसरा भी बदलने का प्रयास करें,भाव स्पष्ट नहीं है ।
आ. भाई समर जी अभिवादन, आपके मशविरे का अनुपालन करते हुए बदलाव का प्रयास किया है । राय दें । हार्दिक धन्यवाद।
आ. भाई सुरेन्द्र जी प्रशंसा के लिए आभार ।
आ. भाई तस्दीक अहमद जी, स्नेह व मार्गदर्शन के लिए शुक्रिया।
आ. भाई बृजेश जी, उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार।
आ. भाई बलराम जी, प्रशंसा के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
आ. भाई नरेंद्र जी उत्साहवर्धन के लिए आभार ।
आद0 लक्ष्मण जी सादर अभिवादन। ग़ज़ल का बढिया प्रयास। शेष आद0 समर साहब कह चुके हैं। इस ग़ज़ल पर बधाई लीजिये
जनाब लक्ष्मण धामी साहिब ,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें । मुहतरम समर साहिब के मश्वरे पर ध्यान जरूर दें ।
भाई लक्ष्मण जी ग़ज़ल पर बढियाँ प्रयास हुआ है। हार्दिक बधाई स्वीकार करें। समर भाई साहब की बातों का। संज्ञान लें।सादर
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