समय का काला
क्रूर धुआँ
आख़िरकार
तैर गया आँखों में
बन के मोतियाबिंद
बड़ा चुभता है आठों पहर
उन दिनों आँखें
बड़ी व्यस्त रहती थी
किसी के दिल को लुभाती थी
किसी के मन को भाती थी
सारा संसार समाया था इनमें
लेकिन धीरे-धीरे
इनका यौवन फीका पड़ गया
पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा
अब ये आँखें
पथराई-सी
डबडबाई-सी
लाचार-सी रहती है
बस यही पहचान रह गई है इनकी ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Comment
दिली आभार आदरणीय सलीम रज़ा साहब । यह लघुकथा नहीं अपितु कविता है ।
रचना के अनुमोदन और दाद-ओ-तहसीन का बहुत-बहुत शुक्रिया आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब ।
सलीम रज़ा साहिब ये कविता है लघुकथा नहीं ।
आदरणीय आरिफ साहब बेहद ही खूबसूरत मगर गमगीन रचना पेशकी गई आपने । शून्य में देखकर सोचने पर मजबूर कर देती है ये नज़्म । एक कामयाब कृति दिली दाद सर ढ़ेरों दाद ! वसूल पाइयेगा ।
सादर
जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब आदाब,आपकी रचना में मुझे अपना दर्द महसूस हुआ,ये आपकी कविता की कामयाबी है,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।
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