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कविता- वो आँखें


समय का काला
क्रूर धुआँ
आख़िरकार
तैर गया आँखों में
बन के मोतियाबिंद
बड़ा चुभता है आठों पहर
उन दिनों आँखें
बड़ी व्यस्त रहती थी
किसी के दिल को लुभाती थी
किसी के मन को भाती थी
सारा संसार समाया था इनमें
लेकिन धीरे-धीरे
इनका यौवन फीका पड़ गया
पहले जैसा कुछ भी नहीं रहा
अब ये आँखें
पथराई-सी
डबडबाई-सी
लाचार-सी रहती है
बस यही पहचान रह गई है इनकी ।

मौलिक एवं अप्रकाशित ।

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Comment

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Comment by Mohammed Arif on March 3, 2018 at 8:13am

दिली आभार आदरणीय सलीम रज़ा साहब । यह लघुकथा नहीं अपितु कविता है ।

Comment by Mohammed Arif on March 3, 2018 at 8:12am

रचना के अनुमोदन और दाद-ओ-तहसीन का बहुत-बहुत शुक्रिया आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब । 

Comment by Samar kabeer on March 2, 2018 at 7:10pm

सलीम रज़ा साहिब ये कविता है लघुकथा नहीं ।

Comment by SALIM RAZA REWA on March 2, 2018 at 6:30pm
वाह बहुत खूब,
जनाब आरिफ साहिब क्या कहने इस लघुकथा के लिए मुबारक़बाद.
Comment by Harash Mahajan on March 2, 2018 at 2:22pm

आदरणीय आरिफ साहब बेहद ही खूबसूरत मगर गमगीन रचना पेशकी गई आपने । शून्य में देखकर सोचने पर मजबूर कर देती है ये नज़्म । एक कामयाब कृति   दिली दाद सर ढ़ेरों दाद ! वसूल पाइयेगा ।

सादर

Comment by Samar kabeer on March 2, 2018 at 10:52am

जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब आदाब,आपकी रचना में मुझे अपना दर्द महसूस हुआ,ये आपकी कविता की कामयाबी है,इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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