बड़े बेटे ने माँ के फटे पुराने कपड़े इकट्ठे किए । दूसरा बेटा चश्मा और छड़ी ढूँढकर लाया । तीसरे ने दवाई की शीशी और पुड़ियाँ अलमारी से निकाली । छोटी बहू कड़वा ताना देती हुई बोली-" जाने कब मरेगी । लगता है कोई अमर बूटी खाकर आई है ।" चारों मिलकर माँ को वृद्धाश्रम छोड़ आए । अब चारों ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला -चिल्लाकर सभी को बता रहे हैं कि माँ अपनी राजी-मर्जी से हमेशा के लिए अपनी बेटी के घर चली गईं ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Comment
आदरणीय आरिफ जी नमस्कार,
बहुत ही कटूसत्य है ये आज के समाज में बुजुर्ग माँ-बाप की जो हालत है ...
झकझोर के रख दिया ....बहुत ही बेहतरीन लघुकथा।
बहुत-बहुत आभार आदरणीय सुरेंद्रनाथ जी । लेखन सार्थ क हो गया ।
रचना पर अपनी प्रतिक्रिया से मान बढ़ाने का बहुत-बहुत आभार आदरणीय सोमेश जी ।
आद0 मोहम्मद आरिफ जी सादर अभिवादन।बढिया लघुकथा, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार कीजिये
लघुकथा पर अपनी निरपेक्ष टिप्पणी से सफल बनाने का बहुत-बहुत आभार आदरणीय तस्दीक़ अहमद जी ।
मुहतरम जनाब आरिफ़ साहिब ,आपकी जादुई क़लम से बहुत ही सुन्दर लघुकथा निकल कर आई है ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं।
अद्भुत और बड़ी विस्मकारी टिप्पणी । ऐसा टिप्पणी पाना मेरा लिए बहुत बड़ी खुशक़िस्मती है । लेखन सार्थक हो गया । किन शब्दों में शुक्रिया अदा करूँ समझ में नहीं आ रहा । दिली शुक्रिया आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब ।
रचना पर टिप्पणी देकर उसका मान बढ़ाने का बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय सलीम रज़ा साहब ।
जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब आदाब,कम शब्दों में जादू जगाना कोई आपसे सीखे,बहुत उम्दा लघुकथा,सच्चाई से क़रीब, वाह बहुत ख़ूब, इस बहतरीन प्रस्तुति पर ढेरों बधाई स्वीकार करें ।
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