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इस बेखुदी में आप भी जाते कहाँ कहाँ ।
दिल के हजार ज़ख्म दिखाते कहाँ कहाँ ।।
खानाबदोश सा लगा आलम जहान का ।
रातें तमाम आप बिताते कहां कहां ।।
मुश्किल सफर में अलविदा कह कर चले गए ।
यूँ जिंदगी का साथ निभाते कहाँ कहाँ ।।
चहरा हो बेनकाब न जाहिर शिकन भी हो।
क़ातिल का हम गुनाह छुपाते कहाँ कहाँ ।।
कुछ तो हमें भी फैसला लेना था जुल्म पर ।
नजरें हया के साथ झुकाते कहाँ कहाँ ।।
आंखे किसी के, हुस्न पे मुझको फिदा मिलीं ।
दरबान इस चमन में बिठाते कहाँ कहाँ ।।
शायद अदा में दम था परिंदे कफ़स में हैं ।
यूँ आसमान सर पे उठाते कहाँ कहाँ ।।
दैरो हरम से दूर हमें तो खुदा मिले ।
मस्जिद में रब है लोग बताते कहाँ कहाँ ।।
हमको नसीहतें वों भुलाने की दे गए ।
उनकी निशानियों को मिटाते कहाँ कहाँ ।।
बदनाम हो न जाये ये बस्ती के हम थे चुप ।
जुल्मो सितम का दर्द सुनाते कहाँ कहाँ ।।
उसको तो डूब जाना था आंखों में आपके ।
उसका वजूद आप बचाते कहाँ कहाँ ।।
जलता मिला है शह्र तुम्हारे उसूल पर ।
उल्फत की तुम भी आग लगाते कहाँ कहाँ ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 लक्ष्मण धामी साहब हार्दिक आभार
आ0 हर्ष महाजन साहब तहेदिल से शुक्रिया
आ0 कबीर सर सादर नमन । अति महत्वपूर्ण इस्लाह हेतु हार्दिक आभार । अपेक्षित सुधार कर दिया है सर ।
आ० नवीन मनी जी आदाब | हर शेर को पढ़कर अच्छा लगा |
बहुत ही सुंदर बांधे हैं आपने अपने अहसास |
"आंखे किसी के, हुस्न पे मुझको फिदा मिलीं ।
दरबान इस चमन में बिठाते कहाँ कहाँ ।।"...आरी सुंदर
बधाई |
सादर |
आ. नवीन जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
दूसरे शैर के ऊला मिसरे में 'आलम' और ' जहान' एक ही है, इस शैर को यूँ कर सकते हैं :-
'ख़ानाबदोश जैसे हैं हम इस जहान में
रातें तमाम अपनी बिताते कहाँ कहाँ'
छटे शैर के ऊला में 'मुझको' की जगह "हमको" कर लें ।
8वें शैर के ऊला में 'मिले' को " मिला" कर लें ।
11वें के ऊला में 'आपके' की जगह "आपकी" कर लें ।
निवेदन है कि ज़ियादा अशआर कहें तो उन पर नम्बर डाल दिया करें ।
आ0 कबीर सर को नमन
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