2122 1212 22
जिसको कहते थे बेवफा निकला ।
आदमी फिर वही भला निकला ।।
कोशिशें थीं जिसे मिटाने की ।
शख्स वह दूध का जला निकला ।।
दिल जलाने की साजिशें लेकर ।
घर से वो भी था बारहा निकला ।।
रात भर जो हँसा रहा था मुझे ।
सब से ज्यादा वो ग़मज़दा निकला ।।
दफ़्न कैसे हैं ख्वाहिशें सारी ।
आपका दिल तो मकबरा निकला ।।
उनसे पूछा जो दर्द का आलम ।
आज तक जख्म वो हरा निकला ।।
आज फिर याद बहुत आये जब ।
एक खत आपका दबा निकला ।।
मुंतजिर था मैं जिसका मुद्दत से ।
चाँद घर से खफ़ा खफ़ा निकला ।।
अब मुहब्बत की बात मत कीजै ।
इश्क़ भी एक हादसा निकला ।।
देखकर आपको मिला है सुकूँ ।
आप आये तो फायदा निकला ।।
तोड़ कर देख आज दिल मेरा ।
फिर बताना कि दिल में क्या निकला ।।
नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नवीन मनी जी आदाब । सर मेरा नाम हर्ष महाजन है रोहित महाजन नहीं ।
सादर !
आ0 रोहित डाबरियाल और रोहित महाजन साहब हार्दिक आभार
बहुत ही अच्छी पेशकश आपकी आ0 नवीन मनी जी ।
सादर ।
अब मुहब्बत की बात मत किजै ।
इश्क़ भी एक हादसा निकला।।
वाह् वाह्
बहुत खूब ग़ज़ल कही नवीन मणि त्रिपाठी जी...मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ।
आ0 सुरेंद्र इंसान साहब सप्रेम आभार ।
आ0 कबीर सर सादर नमन । आप के विचारों से सहमत हूँ । अभी ठीक करता हूँ ।पुनः सादर आभार के साथ नमन ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
'घर से वो भी था बारहा निकला'
इस मिसरे को यूँ करलें गेयता बढ़ जायेगी :-
'अपने घर से वो बारहा निकला'
'उनसे पूछा जो दर्द का आलम
आज तक ज़ख़्म वो हरा निकला'
इस शैर में भाव स्पष्ट नहीं है, और दोनों मिसरों में रब्त भी नहीं,इस शैर को यूँ कर सकते हैं :-
'जो कभी आपने दिया था हमें
आज भी दर्द वो हरा निकला'
वाह बहुत अच्छा प्रयास है ग़ज़ल का । हार्दिक बधाई स्वीकार करे जी।
आ0 आरिफ साहब आपकी बात में दम है । सहमत हूँ। ओ बी ओ एक लोकप्रिय वेबसाइट है इससे भी सहमत हूँ । सभी रचनाकार भी बहुत अच्छा लिख रहे हैं । मैं तो सर अभी ग़ज़ल सीख रहा हूँ । एक विद्यार्थी हूँ । आ0 कबीर साहब के सानिध्य में बहुत कुछ सीखा हूँ और सीखता रहूँगा । ओ बी ओ का सौभाग्य है कि आ0 कबीर जैसे समर्पित व्यक्ति ओ बी ओ में हैं । मैं एक छोटी सी नौकरी करता हूँ । अत्यंत कम्सम्य ही मिल पाता है। फिर भी कभी कभी ओबीओ के आयोजन में मेरी हाजिरी लग जाती है। ग़ज़ल के अलावा कुछ अन्य विषय पर भी निरन्तर कार्य करता हूँ । ज्योतिष संगीत बाँसुरी वादन भी मेरा विषय है। बसीर साहब का वह शेर बार बार मन मे याद आ जाता है कुछ तो मजबूरियां रही होंगी ..... सादर नमन के साथ आभार ।
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,
बेहद लाजवाब और सरल शब्दों में ग़ज़ल कही आपने । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।
ओबीओ सीखने-सिखाने का साहित्यिक परिवार का सशक्त मंच है । आपकी मेरी तथा अन्य साथियों की टिप्पणियों से बहुत सीखने को मिलता है । लेकिन कुछ साथी ब्लॉग पोस्ट पर अपनी पोस्ट करते हैं और टिप्पणियाँ बटोरकर नदारद हो जाते हैं । ब्लॉग पोस्ट पर प्रतीक्षारत साहित्य की अन्य विधाओं पर टिप्पणी करने से गुरेज़ करते हैं । केवल अपनी पोस्ट तक सीमित रहते हैं । आख़िर ऐसा क्यों ? क्यों न आप सबको टिप्पणियाँ देने की पहल करें । सादर ।
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