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महफ़िल में नशा प्यार का लाना ही नहीं था ।
तो नग़मा मुहब्बत का सुनाना ही नहीं था ।
रौशन किया जो हक़ से तुझे रोज़ ही दिल में,
वो तेरी निगाहों का निशाना ही नहीं था ।
कर-कर के भलाई यहाँ रुस्वाई मिले तो,
ऐसा तुझे किरदार निभाना ही नहीं था ।
है डर तुझे हो जाएगा फिर दिल पे वो क़ाबिज़,
सँग उसके तुझे जश्न मनाना ही नहीं था।
होते हैं अगर कत्ल यहाँ हिन्दू मुसलमाँ,
मंदिर किसी मस्ज़िद को बनाना ही नही था।
डर डूब के मरने का तेरे दिल में था इतना,
तो इश्क़ के दरिया में नहाना ही नहीं था ।
*****
मौलिक व अप्रकाशित
हर्ष महाजन
Comment
आ0 नीलेश जी आदाब ।
एक और मतला लाया हूँ सर ज़रा नज़र डालिये ।
"वो तेरी निग़ाहों का निशाना ही नहीं था,
तो उसकी मुहब्बत को तू जाना ही नहीं था ।"
सादर ।
आ. हर्ष जी.
एक शब्द मूल रखेंगे तो आसानी होगी जैसे आना, जाना, ज़माना, पाना, निशाना आदि
सादर
आ0 नीलेश जी आदाब ।
आपके मार्गदर्शन में फिर से कोशिश जारी है।
सादर
आ. हर्ष जी
निभ और चल में भी वही दिक्कत है ..
ये देखिये ....
.
वादा ये प्यार का जो निभाना ही नहीं था
दिल के कहे में आप को आना ही नहीं था
सादर
आ0 नीलेश जी औऱ आ0 समर जी इस ग़ज़ल में मतला तब्दील किया है । आप गुणीजनों से अनुरोध । मार्गदर्शन कीजिये ।
गर मुझसे मुहब्बत को निभाना ही नहीं था,
तो तीर निगाहों का चलाना ही नहीं था ।
कर-कर के भलाई यहाँ रुस्वाई मिले तो,
ऐसा तुझे किरदार निभाना ही नहीं था ।
है डर तुझे हो जाएगा फिर दिल पे वो क़ाबिज़,
सँग उसके तुझे जश्न मनाना ही नहीं था।
होते हैं अगर कत्ल यहाँ हिन्दू मुसलमाँ,
मंदिर किसी मस्ज़िद को बनाना ही नही था।
डर डूब के मरने का तेरे दिल में था इतना,
तो इश्क़ के दरिया में नहाना ही नहीं था ।
कृति पर आपके आगमन और उत्साहवर्धन का तहे दिल से बहुत-बहुत हार्दिक आभार आदरणीय मोहम्मद आरिफ साहब ।
सादर ।
आदरणीय हर्ष महाजन जी आदाब,
बहुत ही अच्छी ग़ज़ल का प्रयास । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय दे चुके हैंं ।
आदरणीय समर जी आदाब । सर आभारी हूँ । आपकी व्यस्तता को देख कर मैं समझ सकता हूँ सर । आपके मार्गदर्शन से ओ बी ओ में बहुत कुछ सीखा है और आगे भी सिलसिला जारी ही रखना चाहूँगा । प्रोत्साहन भरे शब्दों के किये ममनून हूँ ।
सादर !
आदरनीय नीलेश जी आदाब । सबसे पहले तो आपकी आमद का बहुत बहुत शुक्रिया । ग़ज़ल को सराहने के लिये सर आभार । सर पहले शेर में मुहब्बत के उतार चढ़ाव को लेकर जाम को तरज़ीह दी । और ये भी सच है जो हम कहना चाहते हैं वो सीधे पढ़ने वाले तक न पहुंचे तो कमी तो है ।
मार्गदर्शन के लिए आपका तहे दिल से धन्यवाद करना चाहूंगा ।
सर ये दोनों ही शेर दुबारा कहने की कोशिश करता हूँ ।साथ बनाये रखियेगा ।
सादर ।
जनाब हर्ष महाजन जी आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
मैंने जब आपकी ये ग़ज़ल देखी थी तो सिर्फ़ बह्र के हिसाब से देखी थी,क़वाफ़ी भी 'ठाना" "माना' के हिसाब से ही देखे थे,क्योंकि ये ग़ज़ल 'क़ैसर' साहब की ज़मीन में है और जहां तक मुझे याद है उनकी ग़ज़ल में भी कुछ ऐसे ही थे,इसलिये क़वाफ़ी पर ध्यान नहीं दे सका, इसका खेद है, वैसे जनाब निलेश जी की बात सही है,संज्ञान लें ।
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