रब से ....
वो लम्हा
कितना हसीं था
जब तुमने
हाथ उठा कर
मुझे
रब से माँगा था
मेरा
हर ख़्वाब
महक गया था
जब मैंने
अपनी आरज़ू को
तुम्हारी दुआओं में
महफ़ूज़ देखा था
मेरी बयाज़ें
जिनमें
हर लफ़्ज़
मेरी
तन्हाईयों से
सरगोशियों की दास्तान था
उन्हीं सरगोशियों की आग़ोश में
बेसुध सोया
मेरी उल्फ़त का
इक
अनदेखा अरमान था
सच
उस लम्हा
तुम मुझे
मेरी तारीकियों में
शुआअ से लगे
जब तुमने
हाथ उठा कर
मुझे
रब से माँगा था
बयाज़ें =डायरी या कविता की कॉपी जो हस्तलिखित हो , शुआअ=किरण
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय विजय निकोर साहिब, सादर प्रणाम। ... आपकी स्नेहाशीष का ये बंदा दिल से आभार है। नेट प्रॉब्लम से आभार व्यक्त करने में हुए विलम्ब के लिए क्षमा चाहूंगा।
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह जी सृजन के भावों को आत्मीय मान देने का दिल से आभार। नेट प्रॉब्लम से आभार व्यक्त करने में हुए विलम्ब के लिए क्षमा चाहूंगा।
आदरणीय समर कबीर साहिब, आदाब आपकी प्रेरक प्रतिक्रिया मुझे सदा नए सृजन के लिए प्रोत्साहित करती है। आपका तहे दिल से शुक्रिया। नेट प्रॉब्लम से आभार व्यक्त करने में हुए विलम्ब के लिए क्षमा चाहूंगा।
आदरणीय तस्दीक अहमद ख़ान साहिब आदाब , सृजन को आत्मीय मान से सुशोभित करने का दिल से आभार। नेट प्रॉब्लम से आभार व्यक्त करने में हुए विलम्ब के लिए क्षमा चाहूंगा।
आद0 सुशील सरना जी सादर अभिवादन। पुनः आपकी कलम से एक बढिया अतुकांत मिली पढ़ने को। बधाई इस अतुकांत रचना पर सादर
जनाब सुशील सरना जी आदाब,बहुत रवां दवां कविता हुई है,बहुत सुंदर इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
जनाब सुशील सरना साहिब ,बहुत ही जज़्बाती और आकर्षित करने वाली कविता हुई है ,मुबारक बाद क़ुबूल फरमाएं।
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