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पहले जैसी चेहरों पर मुस्कान कहाँ ।
बदला जब परिवेश वही इंसान कहाँ ।।
लोकतन्त्र में जात पात का विष पीकर।
जीना भारत मे है अब आसान कहाँ ।।
लूट गया है फिर कोई उसकी इज्जत ।
नेताओं का जनता पर है ध्यान कहाँ ।।
भूंख मौत तक ले आती जब इंसा को ।
बच पाता है उसमें तब ईमान कहाँ ।।
भा जाता है जिसको पिजरे का जीवन ।
उस तोते के हिस्से में सम्मान कहाँ ।।
दिल की खबरें अक्सर उसको मिलती हैं ।
दर्दो गम से वो मेरे अनजान कहाँ है ।।
मान गया होगा वह गैरों की बातें ।
उसको अब तक सच की है पहचान कहाँ ।
तोड़ दिया जब दिल मेरा तुमने हंसकर ।
बाकी मुझमें अब कोई अरमान कहाँ ।।
--नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 कबीर सर सादर नमन के साथ आभार
आदरणीय नवीन मणि जी आदाब,
बहुत ही उम्दा अश'आरों से सुसज्जित बेहतरीन ग़ज़ल के लिए दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें । आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह पर गौर करें ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
कुछ टंकण त्रुटियाँ देख लें ।
आदरणीया कल्पना भट्ट जी सादर आभार ।
सुंदर ग़ज़ल| हार्दिक बधाई आदरणीय|
सादर आभार आ0 बसन्त शर्मा जी
वाह अति सुंदर गजल , बहुत बहुत बधाई आपको
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