गर्म होती जा रहीं है,
शहर में पागल हवाएँ.
क्या पता इन बस्तियों में,
कब पटाखे फूट जाएँ.
ढूँढता अस्तित्व अपना,
सच बहुत बेचैन है.
डस रहा है दिन उसे तो,
काटती अब रैन है.
डस्टबिन में जा चुकी हैं,
बुद्ध की जातक कथाएँ.
मात्र कहने के लिए है,
चेहरों पर मुस्कुराहट.
दूर से करते नमस्ते,
द्वार पर दिल के न आहट.
मंदिरों में भीड़ तो है,
हैं नहीं आराधनाएँ.
हर चुनावी साल में बस,
वायदों की बीन बजती.
रोटियों की कशमकश में,
जिन्दगी यूँ ही गुजरती.
पंख खुलने ही न देतीं,
ढेर सारी वर्जनाएँ.
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
Comment
बहुत ही सुंदर रचना आ0 बसंत जी।
बहुत बहुत बधाई ।
सादर ।
वाह आ. बसंत जी,
वर्तमान को परिलक्षित करती इस रचना के लिए बहुत बधाई
सादर
आदरणीय लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' जी आपका तहे दिल से शुक्रिया
आ. भाई बसंत जी, सुंदर गीत हुआ है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय Shyam Narain Verma जी आपका तहेदिल से शुक्रिया
इस सुंदर प्रस्तुति के लिए तहे दिल बधाई सादर |
आदरणीय Ajay Tiwari जी आपका दिल से शुक्रिया
आदरणीय वसंत जी, इस बेहतरीन नवगीत के लिए हार्दिक बधाई .
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