हो सके तो वन बचा लो
दे रहे जीवन सभी को,
खेत, वन, उपवन सजा लो.
हैं जरूरी जिन्दगी को,
हो सके तो वन बचा लो.
हो चुके हैं, मत करो इन,
पर्वतों को और नंगा.
ध्यान रखना है हमें अब,
और मैली हो न गंगा,
धो चुके तन किन्तु मन का,
कलुष तो उसमें न डालो. ......हो सके तो वन बचा लो.
बात पानी की करें क्या,
रेत भी लूटी नदी की.
मीन अब इतिहास बनती,
दिख रही है नव सदी की.
मृत न झरने हों कहीं पर,
जो बचा है जल सँभालो.......हो सके तो वन बचा लो.
वृक्ष कोई भी प्रगति की,
राह का काँटा नहीं है.
सत्य यह है, दुख किसी ने,
पेड़ का बाँटा नहीं है.
बात तब है, पेड़ कोई,
एक काटो सौ लगा लो.......हो सके तो वन बचा लो.
"मौलिक एवं अप्रकाशित "
बसंत कुमार शर्मा, जबलपुर
Comment
ह्रदय से आभार आदरणीय Harash Mahajan जी आपका , अभी ठीक करता हूँ गीत को
आदरणीय Sheikh Shahzad Usmani जी आपका दिल से शुक्रिया हौसलाफजाई के लिए
आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी आपका ह्रदय से आभार, आपके सुझाव अनुकरणीय होते हैं ठीक करता हूँ , रचना को संबल मिला
आदरणीय Mohammed Arif जी आपका तहे दिल से शुक्रिया
बहुत ही बढ़िया आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी ।
सुंदर सृजन ।
आदरणीय नीलेश जी सही कहा है सर ।
सादर ।
पर्यावरण दिवस के पूर्व माह और ग्रीष्म ऋतु में उपयोगी बेहतरीन प्रेरक रचना। हार्दिक बधाई और आभार आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी।
आ. बसंत जी,
समसामयिक चिन्तन को उकेरता उत्तम नवगीत प्रस्तुत किया है आपने
बहुत बहुत बधाई ..
यदि अंतरे के बाद मुखड़े की अंतिम तुकांत पंक्ति और ऐड करेंगे तो पढने में अधिक रस आएगा..
सादर
आदरणीय बसंत कुमार शर्मा जी आदाब,
पर्यावरणीय संचेतना को समर्पित बेहतरीन गीत की पेशकश । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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