अरकान:-
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़ेलुन
गुज़रे वक़्तों की वो तहरीर सँभाले हुए हैं,
दिल को बहलाने की तदबीर सँभाले हुए हैं।।
बाँध रक्खा है हमें जिसने अभी तक जानाँ,
हम महब्बत की वो ज़ंजीर सँभाले हुए हैं।।
देखते रहते हैं अजदाद के चहरे जिसमें,
हम वफ़ाओं की वो तस्वीर सँभाले हुए हैं।।
जिन लकीरों में नजूमी ने कहा था,तू है,
दोनों हाथों में वो तक़दीर सँभाले हुए हैं।।
वस्ल की शब में जो देखे थे सुनहरी सपने,
उनकी हम आज भी ताबीर सँभाले हुए हैं।।
#संतोष
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय भाई संतोष जी दिल के जज्वातों को बखूभी पिरोया है आपने इस ग़ज़ल में इस रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर
आदरणीय संतोष जी बहुत सुंदर ग़ज़ल की प्रस्तुति । बहुत बहुत मुबारकबाद ।
आ0 संतोष जी बहुत सुंदर ग़ज़ल के लिए बधाई मुझे हर शेर अच्छा लगा ।
आदरणीय सन्तोष जी आपकी गजल भावनाओं से ओत प्रोत है बेहतरीन गजल लिखने के लिए बहुत बहुत बधाई
प्रणाम आदरणीय समर साहब....तहेदिल से शुक्रिया!!!
जनाब संतोष जी आदाब,बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
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