आपने भी तो कहाँ ठीक से जाना मुझ को
खैर जो भी हो, मुहब्बत से निभाना मुझ को.
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जीत कर मुझ से, मुझे जीत नहीं पाओगे
हार कर ख़ुद को है आसान हराना मुझ को.
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मैं भी लुट जाने को तैयार मिलूँगा हर दम
शर्त इतनी है कि समझें वो ख़ज़ाना मुझ को.
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आप मिलियेगा नए ढब से मुझे रोज़ अगर
मेरा वादा है न पाओगे पुराना मुझ को.
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ओढ़ लेना मुझे सर्दी हो अगर रातों में
हो गुलाबी सी अगर ठण्ड, बिछाना मुझ को.
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मुख़्तसर है ये तमन्ना कि अगर जाँ निकले
आप की गोद का मिल जाए सिरहाना मुझ को.
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कर सराबोर मुझे मुझ में बरस कर ऐ ‘नूर’
अपनी बस्ती में कहीं दे दे ठिकाना मुझ को
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निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित
Comment
हार्दिक बधाई आदरणीय नीलेश जी। बेहतरीन गज़ल।
मुख़्तसर है ये तमन्ना कि अगर जाँ निकले
आप की गोद का मिल जाए सिरहाना मुझ को.
आ. तस्दीक़ अहमद साहब,
सिरहाने या सिरहाना लिखने में यूँ ही लिखा जाता है लेकिन पढ़ते समय सिराना पढ़ा जाता है ..जैसे चेहरे का ह लोप हो जाता है ..
मीर का शेर देखकर ही वज़न तय किया है मैंने ..देखिएगा ..
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सिरहाने 'मीर' के आहिस्ता बोलो
अभी टुक रोते रोते सो गया है....
अत: न काफिये में कोई त्रुटी है और न बहर में ..
सादर
धन्यवाद आ. मोहम्मद आरिफ साहब,
आपकी टिप्पणी से उत्साहवर्धन हुआ है
आभार
आदरणीय नीलेश जी आदाब,
लगातार क्रिस गेल के चौकों-छक्कों की मानिंद धुआँधार आपीएल आपकी ग़ज़लों का हो रहा है । लगता है इसे अब रोक पाना बड़ा है । वैसे भी म.प्र. के लगभग सभी ज़िलों का तापमान भी लगातार बढ़ता ही जा रहा है ।
हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
मुशायरे के बीमारों का इलाज आर.एम.पी डॉक्टर्स को ही शोभा देता है,लेकिन आप तो सर्जन हैं भाई ।
शुक्रिया आ. समर सर ..
चौथा शेर तो मैं स्वयं मान चुका हूँ कि फ़र्ज़ी है.. पाँचवा शेर मुशाइरे की चूरण गोली है...जैसे बीमार वैसा इलाज .. :-))))))))
सादर
शुक्रिया आ. हर्ष जी
जनाब निलेश 'नूर' साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ ।
4था और 5वाँ शैर मुझे भर्ती के लगे ।
मक़्ते में 'सराबोर' को "शराबोर" कर लें ।
"आपने भी तो कहाँ ठीक से जाना मुझ को
खैर जो भी हो, मुहब्बत से निभाना मुझ को."
वाह आदरणीय नीलेश जी बाकमाल लिखते हैं आप ।
बहुत खूब ।
सादर ।
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उस शेर में शुतुरगुर्बा भी है शायद.. आप के साथ पायेंगे आना चाहिये...
सादर
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