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हम तो बस आपकी राह चलते रहे
ये ख़बर ही न थी आप छलते रहे
बादलों से निकल चाँद ने ये कहा
भीड़ में तारों की हम तो जलते रहे
हिम पिघलती हिमालय पे ज्यों धूप में
यूँ हसीं प्यार पाकर पिघलते रहे
चांदनी भाती , आशिक हूँ मैं चाँद का
सच कहूं तो दिए मुझको खलते रहे
जुल्फ की छांव में उनके जानो पे सर
याद करके वो मंजर मचलते रहे
एक दूजे को हम ऐसे देखा किये
अश्क आँखों से रुख पर फिसलते रहे
जिस तरह आसमां से है सूरज ढले
हुस्न भी हुस्न वालों के ढलते रहे
हमसफ़र है हसीं इसलिए दोस्तों
पाँव में छाले पर आशू चलते रहे
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय हर्ष जी रचना पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर
मतला यूँ कर लें :-
'हम तो बस आपकी राह चलते रहे
ये ख़बर ही न थी आप छलते रहे'
आदरणीय आशुतोष जी बहुत ही
सुंदर प्रस्तुति । दाद सर ।
सादर ।
आदरणीय लक्षमण जी रचना पर प्रतिक्रिया के लिए हार्दिक धन्यवाद सादर
आदरणीय भाई निलेश जी
एक परिवर्तन किया है क्या ये ठीक है यदि नहीं तो प्रयास करता हूँ
हम तो बस आपकी राह चलते रहे
थी खबर ही नहीं आप छलते रहे
आ. भाई आषुतोस जी, अच्छी गजल हुई है हार्दिक बधाई ।
आदरणीय समर सर
गमजदों को भी खुशिओं से छलते रहे ...क्या ऐसा कर सकता हूँ ?सादर
आप मतला दूसरा कहें और उसमें 'जलते' ढलते-पलते-चलते कोई भी क़ाफ़िये ले लें ।
निलेश जी ने भी अच्छा सुझाव दिया है ।
आ. डॉ साहब,
ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है लेकिन जैसा बताया गया है कि मतले के अनुसार बाकी अशआर नहीं हैं .. मिटते करने से भी इता दोष रह जाएगा ..
मतला में .. बदलते चलते जलते खलते सँभलते आदि लेने से दोष हट जाएगा
प्रयास के लिए बधाई
सादर
.
आदरणीय समर सर रचना पर आपके मार्गदर्शन का इंतज़ार रहता है आपके सुझाव के अनुरूप परिवर्तन कर रहा हूँ . सर पहले शेर में काफिये की गलती हुयी है मरते की जगह मिटते कर सकता हूँ क्या ...आप इस पर भी मार्गदर्शन देने की कृपा करें . रचना पर आपके मार्गदर्शन और प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ सादर प्रणाम के साथ
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