मारे घूसे जूते चप्पल बदज़ुबानी सो अलग।
और कहते गाँव को मेरी कहानी सो अलग।।
आये साहब वादों की गोली खिलाकर चल दिये।
कह रहे हैं ये हुनर है खानदानी सो अलग।।
है अना गिरवी मरी संवेदनाये भी सुनो।
ज़िंदा है गर मर गया आँखों का पानी सो अलग।।
घोलकर नफ़रत हवा में वो बहुत मग़रूर है।
चाहिए उनको नियामत आसमानी सो अलग।।
लूटकर चलती बनी मुझको अकेला छोड़कर।
अब कहूँ क्या तुम हो दिल की राजधानी सो अलग।।
ढंग से इक काम करने का सलीका है नहीं।।
राम सब से चाहिए अब मेह्रबानी सो अलग।।
2122 2122 2122 212
मौलिक(अप्रकाशित)
राम शिरोमणि पाठक
Comment
नीलेश जी उत्साह वर्धन हेतु बहुत आभार आपका
जनाब राम शिरोमणि पाठक जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है,बधाई स्वीकार करें ।
चौथे शैर के सानी मिसरे में 'नियामत' कोई शब्द ही नहीं है,सहीह शब्द है "नेमत",मिसरा बदलने का प्रयास करें ।
आदरणीय रामशिरोमणि जी अच्छी ग़ज़ल कही आपने। तंज के लिए दिली मुबारकबाद पेश करता हूं
हार्दिक बधाई आदरणीय राम शिरोमणि पाठक जी। बेहतरीन गज़ल।
घोलकर नफ़रत हवा में वो बहुत मग़रूर है।
चाहिए उनको नियामत आसमानी सो अलग।।
आ. पाठक जी
आप को पहली बार पढ़ा है.. आपका कलाम पसंद आया ..
रदीफ़ को बहुत अच्छे से निभाया है आपने
गुदगुदाते हुए तंज़ कसती इस ग़ज़ल के लिए बधाई
सादर
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