(मफा इलातुन---मफा इलातुन)
किसी का लहजा बदल गया है।
चरागे उम्मीद जल गया है।
मैं क्यूँ न समझूँ इसे मुहब्बत
वह मेरा शाना मसल गया है
भला खफ़ा क्यूँ हैं आइने पर
था हुस्न दो दिन का ढल गया है।
ख़ुदा मुहाफ़िज़ है अब तो दिल का
निगाह से तीर चल गया है।
वो मिल गए तो लगा है ऐसा
जो वक़्ते गर्दिश था टल गया है।
जो बीच अपने था भाई चारा
उसे त अस्सुब निगल गया है।
मिली है तस्दीक़ उसको मंज़िल
जो खा के ठोकर संभल गया है।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
मुहतरमा राजेश कुमारी साहिबा ,ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
मोहतरम जनाब तस्दीक अहमद जी बहुत अच्छी ग़ज़ल कही है मेरी दिली मुबारकबाद क़ुबूल करें |
मुहतरम जनाब तेजवीर साहिब ,आपकी गज़ल में शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
हार्दिक बधाई आदरणीय तस्दीक अहमद खान साहब जी।बेहतरीन गज़ल।
जो बीच अपने था भाई चारा
उसे त अस्सुब निगल गया है।
जनाब भाई लक्ष्मण धामी साहिब ,आपकी ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
मुहतरम जनाब आरिफ़ साहिब ,ग़ज़ल में शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
आ. भाई तस्दीक अहमद जी, अच्छी गजल हुई है हार्दिक बधाई ।
"मसल" और "दबा" में बड़ा फ़र्क़ है भाई,ग़ौर कीजिये ।
आदरणीय तस्दीक़ अहमद साहब आदाब,
बहुत ही लाजवाब ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ दिली मुबारकबाल क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय दे चुके हैं ।
आ.जनाब नीलेश नूर साहिब ,ग़ज़ल में आपकी शिरकत और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया।
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