‘‘बिटिया की उम्र निकली जा रही है, तुम उसकी कहीं शादी क्यों नहीं करते?’’ हर कोई उससे यही सवाल करता। कल तो सुपरवाइजर ने भी टोक दिया, ‘‘कलेक्टर ढूँढ रहे हो क्या?’’
मिल में काम करने वाले उस मजदूर का सपना कोई कलेक्टर नहीं बस एक अच्छा सा लड़का था जिसे वह अपनी बेटी के लिए ढूँढ रहा था। बीमारी से बीवी के गुज़र जाने के बाद बस एक बेटी ही थी जो उसका सबकुछ थी। बीते सालों में उसने रात-दिन एक कर के कई रिश्ते देखे मगर बात कहीं बनी नहीं। आज भी वह एक ऐसी ही जगह से निराश हो कर लौटा था। ‘‘बेटी!’’ उसने दरवाजा खटखटाते हुए आवाज़ दी।
‘‘अच्छा लड़का चाहिए तो अच्छा रुपया भी ख़र्च करना होगा। मेरा बेटा बड़े दफ़्तर में चपरासी है। अच्छा-ख़ासा ऊपरी पैसा कमाता है। अगर इतना कैश नहीं दे सकते हैं तो मेरे बेटे का ख़्याल अपने दिमाग से निकाल दीजिए।’’ आज उस लड़के के पिता द्वारा कहे गये ये शब्द वह पहले भी कईयों से सुन चुका था, बस फ़र्क था तो सिर्फ़ कीमत का। ‘‘बेटी दरवाजा खोलो।’’ उसने दोबारा दरवाज़ा खटखटाया।
‘‘देखो, अब की जो भी लड़का मिले उसी से उसके हाथ पीले कर दो।’’ उसकी बीवी उससे कहा करती थी। ‘‘जो भी लड़का? बाप हूँ उसका, दुश्मन नहीं। मेरी बेटी राजकुमारी है, उसकी शादी तो मैं किसी राजकुमार से ही करूँगा।’’ और वह गर्वित हो कर जवाब देता था। ‘‘राजकुमारों का रिश्ता राजाओं के घर में होता है, भिखारियों के नहीं। इसलिए ज़्यादा इतराओ मत।’’
दरवाज़ा अभी भी नहीं खुला था। ‘‘बेटी! बेटी!!’’ उसका मन आशंका से भर उठा। वह ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा पीटने लगा। भीतर कोई हलचल नहीं हो रही थी। किसी तरह दरवाज़ा तोड़ कर वह जैसे ही अन्दर पहुँचा तो उसकी बेटी की लाश उसे फन्दे से झूलते हुए मिली। उसका सपना टूट चुका था।
‘‘अपना चेहरा देखिए पापा, झुर्रियाँ पड़ती जा रही हैं। मेरी फ़िक्र छोड़ कर थोड़ा अपना भी ख़्याल रखिए नहीं तो मेरी शादी के दिन समधन आपको बुड्ढा कहेंगी।’’ बेटी ने उसकी फ़िक्र ख़त्म कर दी थी। उसकी लाश को अपनी गोद में रखकर वो रो रहा था। बाहर शहनाईयाँ गूँज रही थीं। किसी कलेक्टर की शादी थी आज। शहनाईयों की गूँज बढ़ती जा रही थी और उसके रोने की भी।
धीरे-धीरे आवाज़ इतनी बढ़ गयी कि उसकी बर्दाश्त से बाहर हो गया। वो बाहर की तरफ़ भागा। भागकर वो सीधे उस गेस्ट हाउस में गया जहाँ से शहनाईयों की आवाज़ आ रही थी। शहनाईयों को छीन कर तोड़ दिया उसने। इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता उसने मेज पर बिछी हुई चादर को खींच कर खाने को ज़मीन पर गिरा दिया। ‘‘अरे कोई पकड़ो इस पागल को!’’ वो सबकुछ तहस-नहस कर देना चाहता था।
लोगों ने उसे पकड़ा और पकड़ते ही उसकी धुनाई शुरु कर दी। उन्होंने उसे इतना मारा, इतना मारा, इतना मारा कि वो मर गया। फिर उसे उठाया और उठाकर वहाँ से दूर अँधेरे में फेंक दिया जहाँ उसकी फटी हुई जेब के सिवाय कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा था।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीया रक्षिता जी. शीर्षक को आपने इतने ध्यान से देखा इसके लिए हृदय से आभारी हूँ. सादर.
आदरणीय बहुत ही मार्मिक चित्रण किया है आपने एक सामाजिक विद्रूपता का इसके लिए बहुत बहुत बधाई..मैं समीक्षा बिलकुल नहीं कर रहा हूँ लेकिन मैंने कई बार पढ़ा क्योंकि इतनी संवेदनशील रचना है तो मुझे ऐसा लगा कि "बेटी ने उसकी फ़िक्र ख़त्म कर दी थी" यहाँ तक ही होती तो ज्यादा बेहतर होता।सादर
आदरणीय सर जी, नमस्कार! बहुत ही ह्रदय स्पर्शी, समाज में जड जमाये कुरीतियों को वयां करती रचना।बहुत बहुत धन्यवाद।
आदरणीय महेंद्र कुमार जी, नमस्कार । बहुत ही हृदयस्पर्शी लघुकथा । माता-पिता के लिए तो बेटी राजकुमारी ही होती है और राजकुमारी के लिए वर ढूँढना भी बाजार में ख़रीदारी जैसा ही हो गया है । प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई ।
हार्दिक बधाई आदरणीय महेंद्र जी।समाज में व्याप्त एक गंभीर बुराई को दर्शाती उत्तम लघुकथा। कुछ मायने में लघुकथा अच्छी बन पड़ी है लेकिन मेरे विचार से कहीं कहीं अतिवाद और अति नाटकीयता की शिकार हो गयी है। यथार्थ से दूर हो गयी है। सादर।
आदरणीय महेन्द्र जी नमस्कार,
बहुत ही बेहतरीन लघुकथा, "बाज़ार" बहुत ही गम्भीर नाम दिया आपने इस कहानी को....वाकई इस संसार में बिना पैसों के कुछ नहीं मिलता, विवाह जैसा पवित्र बंधन भी एक खरीदारी बन कर रह गयी है।
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