पहाड़ की चोटी पर बैठा हुआ वह युवक अभी भी एंटीने से जूझ रहा था।
आज से कई साल पहले जब गाँव का सबसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा युवक शहर से पहली बार टीवी लेकर आया था तो सब लोग बेहद ख़ुश थे। नारियल, अगरबत्ती और फूल-माला से स्वागत किया था सबने उसका। मगर जल्द ही, ‘‘ये टीवी ख़राब है क्या? इसमें हमारी ख़बर तो आती ही नहीं।’’ बुज़ुर्ग की बात से उस युवक के साथ-साथ बाकी गाँव वालों का भी माथा ठनका। ‘‘अरे हाँ! इसमें तो सिर्फ़ शहरों की ही ख़बरें आती हैं, गाँव का तो कहीं कोई नाम ही नहीं।’’ सबने तय किया कि शहर से दूसरी टीवी मंगवायी जाये।
शहर से बदलकर दूसरी टीवी लायी गयी, मगर फिर वही हाल। ‘‘शहर में अच्छी चीजें महंगी मिलती हैं। इसलिए हो सकता है कि सस्ती टीवी होने की वजह से यह सभी जगह की ख़बरें न दिखा पा रही हो।’’ उस पढ़े-लिखे युवक की बात में दम था। इसलिए सबके चन्दे से इस बार एक महंगी टीवी मंगवायी गयी।
‘‘पर इसमें तो अब भी हमारी कोई ख़बर नहीं?’’ निराश बुज़ुर्ग ने चश्मे को टीवी के नज़दीक लाते हुए कहा। वह युवक भी हतप्रभ था। शहर में तो वहाँ की सारी ख़बरें आती थीं। फिर यहाँ? ‘‘शायद ये टीवी शहर से आयी है इसीलिए इसमें केवल शहर की ही ख़बरें होती हैं।’’ पढ़ा-लिखा युवक बुद्धिमान भी था। इसलिए अबकी टीवी पास वाले कस्बे से लायी गयी। मगर हालात फिर भी जस के तस।
लोग इतने दिनों से टीवी देख रहे थे लेकिन उन्हें कहीं कोई ग़रीब नज़र नहीं आया। किसान तथा मज़दूर फ़िल्मों, नाटकों और समाचारों से ग़ायब थे। यही हाल मज़लूमों का भी था। टीवी में न तो उन लोगों की कोई आवाज़ थी और न ही कोई अक्स। भूख का तो टीवी के भूगोल में नामो-निशान तक न था। ऐसा नहीं था कि शहर में भी सारा शहर मौजूद रहा हो। जिस तरह से यहाँ गाँव वालों की ख़बरें नहीं आ रही थीं उसी तरह से वहाँ पर मलिन बस्ती वालों की। पर गाँव वालों को अभी भी उम्मीद थी। इसीलिए वे सालों से पहाड़ की चोटी पर टकटकी लगाये बैठे थे।
‘‘ख़बर आयी?’’ पहाड़ के नीचे गाँव वालों के साथ बैठे बुज़ुर्ग ने आशा भरी निगाह से पूछा। मगर पहाड़ की चोटी पर बैठा हुआ गाँव का सबसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा युवक अभी भी टीवी के एंटीने से जूझ रहा था।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
उत्सावर्धन हेतु बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय गंगा धर शर्मा जी. हार्दिक आभार. सादर.
हार्दिक आभार आदरणीय लक्ष्मण धामी जी. सादर धन्यवाद.
एक गंभीर पाठक किसी भी लेखक की पहली पसन्द होता है. इसलिए आपकी टिप्पणी का हमेशा ही इंतज़ार रहता है आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी. आप लघुकथाओं को बहुत ध्यान से पढ़ते हैं. आपकी यह टिप्पणी भी यही दर्शाती है. आपका बहुत-बहुत आभार एवं हृदय से धन्यवाद. सादर.
गज़ब...भाई महेंद्र कुमार जी बहुत हे सशक्त एवं समीचीन लघुकथा...हार्दिक बधाई...
वर्तमान व्यवस्था पर करारी चोट करती कथा , हार्दिक बधाई आदरणीय
एक बेहद कड़वी सच्चाई को सस्ते-महंगे, शहर-कस्बे और बुद्धिमान युवक के ऐंटीना (सरकार/मीडिया/बड़े नेता) के.बेहतरीन ताने-बाने और परिकल्पना व प्रतीकात्मकता से सम्प्रेषित करती बेहतरीन लघुकथा और शीर्षक के लिये तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और आभार मुहतरम जनाब महेंद्र कुमार साहिब। सवाल उठाती विचारोत्तेजक रचना
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